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________________ १७४ चांदनी भीतर की राजा वसुदेव के पुत्र अरिष्टनेमि का विवाह राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती से होने वाला था। अरिष्टनेमि की वर-यात्रा प्रारंभ हुई। वह विवाह मंडप के पास आई। उस समय अरिष्टनेमि करुण शब्दों को सुनकर द्रवित हो उठे। अरिष्टनेमि ने सारथी से पूछा--भाई ! यह क्या है ? सुख की चाह रखने वाले ये निरीह प्राणी इन बाड़ों और पिंजरों में क्यों रोके हुए हैं-- कस्स अटठा इमे पाणा, ए ए सव्वे सुहेसिणो। वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्धा य अच्छहिं ? सारथी ने कहा--श्रीमन् ! ये भद्र प्राणी आपके विवाह में आए हुए बहुत लोगों को खिलाने के लिए यहां रोके हुए हैं। यह बात सुन अरिष्टिनेमि के मन पर गहरी चोट लगी। उनके मन में घोर वेदना हुई। ऐसा लगा, जैसे स्वयं को बांधा गया है। अरिष्टनेमि ने सोचा-यदि मेरे निमित्त से इन निरीह जीवों का वध होता है तो यह मेरे लिए श्रेयष्कर नहीं है। हिंसा मनोरंजन के लिए जब तक सही अर्थ में करुणा या अहिंसा का विकास नहीं होता तब तक दूसरों के साथ तादात्म्य भाव नहीं जुड़ता। दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो दूसरों को दुःखी देखकर खुश होते हैं। समाचार पत्रों में पढ़ा--मनोरंजन के लिए खरगोशों को दौड़ाया जाता है, उनके पीछे कुत्तों को छोड़ दिया जाता है। जैसे जैसे वे कुत्ते खरगोशों को खाते हैं, उनको कष्ट होता है और लोग तालियों की गड़गड़ाहट से आकाश को गूंजा देते हैं। छोटे छोटे बच्चे मेंढकों को उछालते हैं, मारते हैं। वे मरते हैं तब बच्चों को बहुत मजा आता है। दूसरों को दुःख देने में, सताने और मारने में शायद बहुत लोगों को खुशी होती है। ऐसे लोग विरल हैं, जिनमें अहिंसा की निर्मल चेतना जाग जाती है। 'सब प्राणी समान है जैसा मैं हूं वैसे ही दूसरे जीव हैं'-इस चेतना का जागना बहुत कठिन है। धार्मिक लोगों में यह चेतना जाग गई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। महावीर के समय में भी धार्मिक लोग हिंसा करते थे इसलिए महावीर को समझाना पड़ा--अंगारा अपनी हथेली पर रखो, हथेली जल जाएगी। तुम सोचो--जिस प्रकार अंगारे से तुम्हारे हाथ जलते हैं, वैसे ही दूसरों के जलते हैं। प्राचीन काल में ऐसी क्रूरताएं चलती थी--व्यक्ति के कान में गर्म गर्म सीसा डाल दिया जाता, अंग भंग कर दिया जाता। महावीर को इन सारे संदों में अहिंसा के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने अहिंसा के क्षेत्र में कई नई दृष्टियां दी। कैसे मनुष्य की चेतना उदात्त बने और जो करता के बीज हैं, वे नष्ट हो जाएं। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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