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चांदनी भीतर की
अच्छी लगती हैं। कैसे बनती हैं ये टोपियां। न जाने कितने प्राणियों को सताया और मारा जाता है तब ये निर्मित होती हैं। बढ़िया जूते, बढ़िया बैग, अमुक अमुक बढ़िया उपकरण-इन सबके लिए हजारों-लाखों प्राणियों को क्रूरता से सताया जाता है, पीटा और मारा जाता है तब इन चीजों का उत्पादन संभव बनता है। आदमी इन प्राणियों की करुण आह से बने पदार्थों को सुख और सुविधा का कारण मानता है। यह कहना चाहिए--शक्ति का सिद्धान्त सार्वभौम है तो क्रूरता का सिद्धान्त भी सार्वभौम है। कुछ पशु मांसाहारी हैं। उनके लिए क्रूरता कहें या न कहें किन्तु शक्ति का सिद्धान्त स्पष्ट है। उनका यह स्वभाव बन गया--दूसरों को मारना और अपना जीवन चलाना। शेर, चीता, बाघ-ये मांसाहारी हैं। प्राणियों को मार कर खाते हैं। इसे हम क्रूरता कहें या प्रकृति का नियम, पर यह सिद्धान्त अवश्य लागू होता है-समर्थ असमर्थ को खाकर अपना जीवन चलाता है। लोभ से पैदा होती है क्रूरता
मनुष्य के साथ शक्ति और क्रूरता--ये दोनों बातें जुड़ जाती हैं। मनुष्य में केवल शक्ति की बात भी नहीं है और अनिवार्यता की बात भी नहीं है। वह अपने बड़प्पन के लिए, अपनी सुख-सुविधा या आराम के लिए भी ऐसा करता है इसलिए उसके साथ साथ क्रूरता भी पनप गई। प्राचीनकाल में गायों को इतने क्रूर तरीके से दुहा जाता था, जिससे पूरा दूध निकल जाए। आजकल लोग पूरा दूध निकालने के लिए इंजेक्शन लगाते हैं। आदमी में लोभ होता है। लोभ क्रूरता पैदा करता है। क्रूरता के साथ बहुत सारी बातें आ जाती हैं। शक्ति, क्रूरता और लोभ का ऐसा गठबंधन है, जिसके कारण अनेक निरीह पशु मारे जाते हैं। वह आदमी धन्य होता है, जो इससे बच पाता है। पशुओं में चिन्तन नहीं है। वे पहले जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। मनुष्य में चिन्तन का विकास हुआ है इसलिए उसने शक्ति को सीमित करने का सिद्धान्त भी बनाया। दो चिन्तनधाराएं
शक्ति है पर शक्ति का संयम भी करना चाहिए। जिस दिन यह स्वर निकला, उस दिन दुनिया में एक महान् सत्य की उद्घोषणा हुई। जिसने यह अनुभव किया-'सब जीव समान हैं, प्राणी मात्र मेरे मित्र हैं', उसने सबसे बड़े विज्ञान और सत्य की खोज की। कितना उदात्त सिद्धान्त है-सबको अपने समान समझ लेना किसी को सताने की बात मन में न आना। जब यह विचार उपजा, मनुष्य समाज में दो प्रकार की चिन्तन धारा चल पड़ी। एक वह चिन्तन धारा, जो शक्ति और क्रूरता में विश्वास
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