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अचिकित्सा ही चिकित्सा
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लिखा- अर्हम् का जप करने वाला अग्निमांद्य, श्वास आदि अनेक बीमारियों का समाधान कर लेता है। तीसरा विकल्प है -- वैद्य या डॉक्टर को दिखाऊं । विधान किया गया- पहले उपवास से चिकित्सा करे । उससे सम्भव न हो तो वैद्य या डॉक्टर को दिखाए, दवा ले । यह भी बताया गया -- वैद्य के पास कैसे जाए, कैसे दिखाएं, वैद्यजी जो औषध बताए, उसका सेवन कैसे करे। दवा में भी हम विवेक का सहारा लें। हम यह सोचें-- दवा लेना आवश्यक है पर यदि सामान्य औषध से काम हो जाए तो तेज दवा न लूं। यदि आयुर्वेदिक दवा से समाधान होता हो तो तेज डाक्टरी दवा न लूं। यह अंतिम विकल्प है। इस हथियार का उपयोग पहले ही क्षण में न करें। कुशल योद्धा अंतिम हथियार का उपयोग कभी पहले क्षण में नहीं करता। हम अंतिम विकल्प को पहला विकल्प न बनाएं।
संकल्प मृगचर्या का
मृगापुत्र से अत्यन्त विनम्रता के साथ माता-पिता से निवेदन किया- मैं संयम और तप के द्वारा चिकित्सा करूंगा । इसलिए आप मुझे मृगचारिका की अनुमति दें। माता-पिता ने सोचा-मृगापुत्र ! अपने संकल्प पर दृढ़ है ! इसे अनुमति देना ही श्रेयस्कर है । न यह रुकने वाला है और न इसे रोकना चाहिए। माता-पिता ने सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी -- वत्स ! तुम्हारी जैसी इच्छा है, वैसा करो ।
मिगचरियं चरिस्सामि, एवं पुत्ताः जहासुहं ।
अम्मा पिऊहिं अणुन्नाओ, जहाय उवहिं तओ ।।
माता-पिता ने कितनी स्वतंत्रता दी और मृगापुत्र ने कितनी विनम्रता से स्वीकृति ली । वस्तुतः ये दोनों बातें दिशा दर्शक हैं। मृगापुत्र का यह प्रसंग दीक्षा देने वाले के लिए, दीक्षा लेने वाले के लिए और दीक्षा की प्रेरणा देने वाले के लिए भी मननीय है । यदि इसका सम्यग् मनन किया जाए तो एक स्वस्थ प्रणाली उपज सकती हैं। समत्व की साधना
मृगापुत्र ने मुनि धर्म का जो पालन किया है, वह उसके उदात्त चरित्र का प्रमाण है । मृगापुत्र ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला और सब स्थितियों में समभाव की साधना करने वाला बन गया। वह लाभ अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान या जीवन-मरण - सबमें सम बन गया ।
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निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चचगारवो । समो य सव्व भूएसु, तसेसु थावरेसु य ।। लाभालाभे सुहे दुखे, जीविए मरणे तहा। समोनिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ।।
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