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________________ अचिकित्सा ही चिकित्सा १३५ बीमार होने का प्रमुख कारण है-- पाचन तंत्र की गड़बड़ी । पश्चिमी जगत् में यह कहावत प्रचलित है। बीमारी शुरू होती है पाचन तंत्र में। बीमारी का पहला बिन्दु है - पाचन तंत्र | यदि पाचन तंत्र ठीक है तो सारी बीमारियां अपने आप ठीक हो जाएंगी। उपवास एक उपचार है पाचन तंत्र को सुधारने का। जो आदमी खाता ही चला जाता है, कभी पेट को विश्राम नहीं देता, वह पाचन तंत्र को बीमार बना देता है। जो मोटर निरन्तर चलाई जाती है, पांच-सात घण्टे तक लगातार चलती रहती है, उसका इंजन गर्म हो जाता है, समस्या पैदा हो जाती है। मोटर को विश्राम देना होता है। एक घोड़े को निरन्तर दौड़ाया जाए तो वह भी थक जाए। क्या पेट का इंजन गर्म नहीं होता ? क्या पाचनतंत्र थकता नहीं है ? वह थकता है। कम से कम उसे रिपेयरिंग का अवसर तो मिले, सफाई करने का अवकाश तो मिले। वह मिलता नहीं है तो बीमारी आ टपकती है । लंघन उपवास एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है । जो विजातीय तत्त्व एकत्रित हो गए हैं, वह उनको निकलने का अवसर देती है। विजातीय द्रव्यों के निष्कासन का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है उपवास । मानसिक चिकित्सा एक है मानसिक चिकित्सा की पद्धति । आज बड़े बड़े हॉस्पिटलों में मानसिक चिकित्सा का विभाग जुड़ा हुआ है। लेकिन यह उस मानसिक चिकित्सा की बात है, जो बहुत पुरानी है । यदि कोई मानसिक बीमारी हो जाए तो क्या करें ? यह भी प्राकृतिक चिकित्सा का एक अंग है। वह चिकित्सा, जिसमें दवा का प्रयोग न करना पड़े, प्राकृतिक चिकित्सा है। इस दृष्टि से मानसिक चिकित्सा की प्राचीन विधि को देखें। मन की तीन अवस्थाएं हैं- दृप्त, क्षिप्त और आविष्ट । एक व्यक्ति मन दृप्त हो गया। उसमें उन्माद पैदा हो गया। प्रश्न आया - दृप्त अवस्था की चिकित्सा कैसे की जाए ? कहा गया-दृप्त अवस्था की चिकित्सा अवज्ञा और अपमान से की जाए। जो मानसिक उन्माद से ग्रस्त है, उसकी अवज्ञा की जाए, उसे अपमानित किया जाए तो वह ठीक हो जाएगा । क्षिप्त मानसिक रुग्णता की दूसरी अवस्था है । जो व्यक्ति क्षिप्त है, उसका सम्मान करना चाहिए। सम्मान के द्वारा उसकी चिकित्सा की जा सकती है। एक व्यक्ति आविष्ट है वह चाहे वायु से आविष्ट है या भूत और यक्ष से आविष्ट है । उसकी चिकित्सा अपमान और सम्मान - - दोनों से की जाए। भाव चिकित्सा एक है भाव चिकित्सा की पद्धति । बहुत सारी बीमारियां भावना के कारण होती हैं । भाव परिवर्तन के द्वारा उसकी चिकित्सा की जा सकती है। मेडिकल साईंस का मत है --निषेधात्मक भाव आते हैं तो हमारी जैविक रासायनिक श्रृंखला गड़बड़ा जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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