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अचिकित्सा ही चिकित्सा
माता-पिता और मृगापुत्र के बीच संवाद आगे बढ़ा। माता-पिता यह निश्चय कर चुके थे--निषेध नहीं करना है। पिता ने कहा--वत्स ! तुम्हारा छंद है तो तुम मुनि बनो । छंद शब्द मराठी भाषा में बहुत प्रचलित है। आचार्य भिक्षु ने 'छंद' शब्द का बहुत प्रयोग किया है। तुम्हारा छंद है, तुम्हारी इच्छा है, तुम मुनि बनो पर इस बात पर ध्यान दो-यह श्रामण्य में जो निष्प्रतिक्रमता है, वह बहुत दुष्कर है। तुम जानते हो--शरीर में कभी बीमारी हो सकती है। जब शरीर में बीमारी होती है, तब कितनी पीड़ा और कितना दर्द होता हैं। श्रामण्य का यह नियम है--मुनि चिकित्सा न कराए। एक और तुम इतने सुकुमार, हो दूसरी ओर रोग हो जाएगा तो चिकित्सा नहीं करानी है। इस स्थिति में तुम कैसे सहन कर पाओगे ? इस बात पर तुम गहराई से चिन्तन करो।
माता-पिता ने एक बड़ा भय दिखा दिया। रोग आए और व्यक्ति चिकित्सा न करे, यह कम संभव है। प्रश्न चिकित्सा का
मृगापुत्र ने माता-पिता के कथन को अवधानपूर्वक सुना। वह उस स्थिति में पहुंच चुका था, जहां यह बात विभीषिका नहीं बन सकती थी। सामान्य आदमी के लिए रोग भय का कारण बन जाता है पर मृगापुत्र सामान्य भूमिका से परे पहुंच चुका था। मृगापुत्र बोला-आपने ठीक कहा-मुनि को चिकित्सा नहीं करानी है। आप इस बात पर भी सोचें--जंगल में कितने पशु हैं, आकाश में कितने पंछी हैं। वे जब बीमार होते हैं तब उनकी चिकित्सा कौन करता है ? कौन सा डाक्टर उन्हें दवा देता है ? मैं भी इसी प्रकार मृगचर्या करूंगा। मुझे मृगचारिता के लिए प्रस्थान की अनुमति दें। मैं ऐसा ही जीवन जीऊंगा। जब भी कोई बीमारी आएगी, उसे शान्त भाव से सहूंगा । बीमारी ठीक होगी तो भिक्षा के लिए जाऊंगा, भिक्षा ग्रहण करूंगा और भोजन कर लूंगा । अन्यथा कुछ भी नहीं खाऊंगा।
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