________________
८२
मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि
को कन्द्रित करने में अभ्यस्त थे । वे बर्मी साधना से परिचित हैं, ऊपर के होंठ पर मन को केन्द्रित करने का निर्देश उचित है। चिपटी नाक वालो के लिए होंठ के ऊपरी भाग पर मन को केन्द्रित करना अधिक उपयुक्त है । भारतीय मनुष्यो की नाक लम्बी होती है, इसलिए उनका नासाग्र होंठ से अधिक संवेदशील होता है । गोयनका जी के निर्देशानुसार ऊपर के होंठ पर संवेदनाओं को पकड़ते पकड़ते मैं अनायास ही नासाग्र पर पहुंच जाता और वहां संवेदनाओं को पकड़ता तथा श्वास के स्पर्श का अनुभव करता ।
मैने अनुभव किया कि कायोत्सर्ग या शारीरिक शिथिलीकरण के साथ आनापानसती का योग बहुत महत्त्वपूर्ण है । प्राचीनकाल में कायोत्सर्ग श्वासोच्छ वास के साथ किया जाता था । वर्तमान वह पद्धति छूट गई। प्राचीन ग्रन्थों में श्वासोच्छवास के साथ कायोत्सर्ग करने का विधान देखा और आनापानसती के प्रयोग से उस विधान को समर्थन मिल गया। बौद्ध परम्परा में जो आनापानसती की साधना है वही जैन परम्परा में कायोत्सर्ग की साधना है ।
तीसरे दिन विपश्यना का अभ्यास प्रारम्भ हुआ । गोयनकाजी ने साधकों को निर्देश दिया - वे स्थिर आसन में बैठ, आंखे मूंद, शरीर के भीतर देखे, भीतर में होने वाले संवेदनों का अनुभव करे, सुखद या दुःखद जो भी संवेदन हो, उन्हे तटस्थ भाव से देखे, अप्रमत्त रहे, वर्तमान की सच्चाई का अनुभव करें, इस निर्देश के साथ अभ्यास शुरु हो गया। मन को अन्तर्मुखी करने की कुंजी हाथ लग गई । वैसे यह बात अज्ञात नहीं थी । याज्ञवल्क्य गीता और आचार्य हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र' को पढ़ने वाला 'उत्तराधार' प्राणायाम से अपरिचित नहीं है । उस प्राणायाम मे सिर से पैर तक और पैर से सिर तक प्रत्येक अवयव का स्पर्श करते हुए प्राणधारा को प्रवाहित किया जा सकता है । किन्तु विपश्यना की पद्धति यही है । इसकी प्रामाणिक जानकारी एक सुपरिपक्व अभ्यासी साधक के द्वारा मुझे पहली बार मिली । एकाग्रता का अभ्यास मुझे पहले से था । इसलिए संवेदनाओं को पकड़ने मे विशेष कठिनाई नहीं हुई। प्रथम अभ्यास में ही कुछ स्पन्दन, कुछ संवेदनाएं और यत्र-तत्र शरीरिक अवरोध अनुभव मे आए । मैने सोचा - मन की सूक्ष्मता होने पर और अधिक सूक्ष्म संवेदनाओं के पकड़ा जा सकता है । अन्तर्मुखी होने, घटना के प्रति तटस्थ रहने का एक निश्चित दृष्टिकोण निर्मित हो गया । कोई बहुत बड़ा शरीरिक या मानसिक लाभ हुआ हो यह मैं नही कह सकता । यह कह सकता हूं कि मुझे धारणात्मक लाभ अवष्य हुआ। मेरी धारणा निश्चित बन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org