________________
मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि योगसंन्यस्तकर्माणि ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्।।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥ ४।४१ आत्मवान् होने का प्रयोग है—वैभाविक क्रिया के अकर्तृत्व का अनुभव । देखना, सुनना, छूना, सूंघना, श्वास लेना-ये सब इन्द्रिय कार्य हैं।
__ इन्द्रयां अपने-अपने विषय मे प्रवृत हो रही हैं । संवेदन मेरा मौलिक स्वभाव नहीं है । इस प्रकार अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वरुप की अनुभूति करने वाला आत्मवान् हो जाता है । यह सब अभ्यास पर निर्भर है।
सिद्धान्त की क्रियावन्वित इसलिए नहीं हो रही है कि चर्चा है, अभ्यास नहीं है। सिद्धान्त और प्रयोग दोनों को पृथक कर गीता का रहस्य नहीं समझा जा सकता । सिद्धान्त की सार्थकता का बोध प्रयोग के द्वारा ही संभाव्य बन सकता
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्। पश्यन्शृण्वन्स्पृशन्जिघनश्ननगच्छन्स्वपन्धसन् ॥ ५।८ 'प्रलपन्विसृजनगृह्मन्मिपन्निमिषन्नपि इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।। ५ ।९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org