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गीता : संदेश और प्रयोग मैं जैन धर्म दर्शन में दीक्षित हुआ हूं, इसलिए अनेकान्त मुझे विरासत में मिला है। मैंने उसे केवल विरासत के रूप में ही नहीं स्वीकारा है, उसे आधुनिक संदर्भो में समझने का प्रयत्न किया है । सापेक्षवाद और संभावनावाद अनेकान्त के आधार-स्तंभ हैं। इन्हें समझकर मैंने उसे हृदयंगम किया है।
गीता मेरी दृष्टि में अनेकान्त दर्शन का एक सुन्दर ग्रन्थ है । आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतितर्क' और आचार्य समंतभद्र ने 'आप्तमीमांसा' में सूक्ष्मता से नयवाद का निरूपण किया है और वे दार्शनिक ग्रन्थ बन गए। गीता आध्यात्मिक और दार्शनिक दोनो हैं। इसमें नयदृष्टि का पद-पद पर उपयोग उपलब्ध है। इसीलिए यह द्वैतवादी और अद्वैतवादी दोनों के लिए आधारभूत ग्रन्थ है । द्वैत और अद्वैत दोनों विरोधी बिन्दु प्रतीत होते हैं। वास्तव में उनमें विरोध नहीं है। वे दोनों सापेक्ष हैं। अद्वैत के बिना द्वैत और द्वैत के बिना अद्वैत की कल्पना नहीं की जा सकती। शब्द-संरचना के लिए भी विरोधी युगल का अस्तित्व अनिवार्य है। योगिराज कृष्ण ने कहा-इस जगत् का विस्तार अव्यक्त से हुआ है । सब भूत मुझमें स्थित हैं । मैं उनमें स्थित नहीं हूं
'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि च चाहं तेष्ववस्थितः ॥९।४ इसका अग्रिम वक्तव्य है-भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा भी नहीं है
'न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: ॥९।५ भूत मुझमें स्थित भी है और नहीं भी । ये दोनों विरोधी बातें कैसे सम्भव हो सकती हैं ? इसका उत्तर है कि यह 'ऐश्वर्य योग' है । सापेक्षवाद ही गीता की भाषा में ऐश्वर्य योग है । सापेक्षवाद के बिना विरोधी युगल की व्याख्या नहीं की जा सकती । मनुष्य के जीवन में अनेक विरोधाभास और विसंगतियां हैं। यह हमारी स्थूलदृष्टि है, व्यवहार नय है । सूक्ष्मदृष्टि या निश्चय नय का वक्तव्य व्यवहार
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