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अधिनायकवाद और स्वतंत्रता
७३ उपादानों और निमित्तों का योग । हम उपादानों को भी बदलें और निमित्तों को भी बदलें। चेतना का रूपान्तरण करना उपादान को बदलना है । व्यवस्था का परिर्वतन निमित्तों को बदलना है, समाज को बदलना है । निमित्तों के आधार पर परिस्थितिवाद का सिद्धान्त चल रहा है । सामाजिक और अधिनायकवाद-दोनों पर्यायवाची शब्द बन गए। यह मान लिया गया है कि नियंत्रण के बिना समाज
को नहीं बदला जा सकता और अधिनायकवाद के बिना नियंत्रण नहीं हो सकता। मार्क्स का स्वप्न था राज्यहीन राज्य (Stateless State) का । यर्थाथ यह है कि राज्य की पकड़ और मजबूत हुई है। व्यक्ति समाज का एक पुर्जा बनकर रह गया। उसके स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा समाप्त होती जा रही है। व्यक्तिवाद और समाजवाद जैसे दो विरोधी खेमे बन गए हैं और इसी अवधारणा के आधर पर अध्यात्मवाद और भौतिकवाद भी आमने-सामने खड़े हैं । अध्यात्मवादी भौतिकवाद को समाप्त करना चाहते हैं और भौतिकवादी अध्यात्मवाद को समाप्त करने पर तुले हए हैं। इन एकांकी अवधारणाओं ने मानव जीवन को बहुत अस्त-व्यस्त कर रखा है । इस सन्दर्भ में मैं अनेकान्तवाद को बहुत उपयोगी मानता हूं । हम सापेक्षता का मूल्यांकन करें, विरोधी युगलों में समन्वय साधे और सह-अस्तित्व की अवधारणा को प्राणवान बनाएं । यह एक उपाय है परतंत्रता से स्वतंत्रता की दिशा में प्रस्थान का। व्यक्तिवाद और समाजवाद ___ सामाजिक जीवन समस्याओं का जीवन होता है। सचाई यह है कि हमारी दुनिया में कोई भी जीवन समस्यामुक्त नहीं हो सकता । इसीलिए मनुष्य समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता है । समस्या आती है और वह सुलझाई जाती है । यह क्रम निरंतर चलता रहता है । मनुष्य का स्वभाव एक समस्या है। उसकी स्वतंत्रता भी एक समस्या है। उसके सोचने का तरीका भी एक समस्या है। वह जड़ वस्तु नहीं है, जिसे एक सांचे में ढाला जा सके । वह चेतन है इसलिए हर कार्य में अपनी इच्छा का उपयोग करता है। उसका उपयोग अच्छे काम में भी हो सकता है और बुरे काम में भी हो सकता है । इस स्थिति को ध्यान में रखकर समाज ने व्यवस्था का सूत्रपात किया और उसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और इच्छा पर अंकुश लगाया। एक सिद्धान्त बना कि स्वतंत्रता और इच्छा का अपने हित मे उपयोग हो, किन्तु दूसरे के अहित में उसका उपयोग न हो । इस सिद्धान्त के आधार पर नैतिकता की आचार-संहिता का विकास हुआ। मनुष्य उस आचार
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