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प्रस्तुति वहां सारी भाषाएं मूक बन जाती है, जहां हृदय का विश्वास बोलता है। जहां हृदय मूक होता है, वहां भाषा मनुष्य का साथ नहीं देती । जहां भाषा हृदय को ठगने का प्रयत्न करती है, वहां व्यक्तित्व विभक्त हो जाता है। अखंड व्यक्तित्व वहां होता है जहां भाषा और हृदय में द्वैत नहीं होता। भाषा और हृदय में अद्वैत वहीं होता है जहां सृष्टि परिमार्जित और सत्योन्मुखी होती है।
जिसे देखना चाहिए, वहां दृष्टि नहीं जाती। जिसे नहीं देखना चाहिए, वहां देखने का प्रयल होता है । यह कैसा विपर्यय ! कांच में मनुष्य अपने आपको ही देखता है । कब किसने कांच की निर्मलता को देखा !
मेरी दृष्टि है-हम अपने निर्मल चैतन्य को देखने का प्रयत्ल करें। उसमें जो प्रतिबिम्ब होगा, वह वास्तविक होगा।
सर्जन का मूल मंत्र है--सतत जलते रहना, कभी नहीं बुझना । यह है-- अप्रमाद का सूत्र । तुम कभी मत बुझो, निरंतर जलते रहो । वे दीपक प्रिय नहीं होते जो रात को जलते है और दो घंटे बाद बुझ जाते हैं। वह दीपक प्रिय होता है जो एक बार जल गया तो जल ही गया। वही ज्योति ज्योति होती है जो अखंड ज्योति के रूप में निरंतर जलती रहे।
सर्जन का यही मूल मंत्र है । वही सृष्टि प्रिय हो सकती है जो नए-नए उन्मेष पैदा कर सके, उन्हें संभाल सके, उनका संरक्षण और पोषण कर सके।
सृष्टि का आदि बिन्दु है आत्मा और चरम बिन्दु है आत्मा । जब तक वह उपलब्ध न हो जाए तब तक पुरुषार्थ चलता रहे । प्रकाश मिलता रहेगा। हाथ-पैर हिलते रहें, प्रकाश मिलता रहेगा। जिस क्षण पुरुषार्थ बन्द हुआ, प्रकाश ढंक जाएगा, सर्जन चुक जाएगा। सर्जन का घटक है पुरुषार्थ।
मैंने इन निबंधों में दर्शन और सर्जन का विमर्श किया है। उसके अनेक आयाम हैं । पाठक उन आयामों में दोनों का स्पर्श करने का प्रयल करे उसे कुछ आलोक प्राप्त होगा। बालोतरा
आचार्य महाप्रज्ञ १-१०-८३
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