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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि वंदना कर बैठा। पैर पर हाथ रख दिया, पैर पकड़ लिया । कुछ कहने की हिम्मत नहीं रही, बैठा रहा और तब तक बैठा रहा जब तक एक प्रहर राच चली गई। न वे बोले, न मैं बोला। वे अपने सोने के स्थान पर चले गए, मैं अपने सोने के स्थान पर चला गया। क्या ऐसा भोलापन कोई समझदार व्यक्ति कर सकता है ? किन्तु मैं जानता हूं कि जहां गुरु हैं वहां तो यह भोलापन ही काम आ सकता है । यदि गुरु और शिष्य में रोज तर्क की लड़ाइयां लड़ी जाएं, परस्पर में टकराव चलता रहे तो गुरु गुरु नहीं, शिष्य शिष्य नहीं, दोनों निकम्मे हैं। गुरु गुरु नहीं बना, शिष्य शिष्य नहीं बना। गुरु आचार्य भिक्षु को मानता हूं कि जिनमें इतना अनुशासन था कि कोई भी शिष्य तर्क नहीं कर सकता था। ज्ञान के क्षेत्र में बहुत अवकाश था, वहां तर्क की पूरी छूट थी किन्तु जहां व्यवहार का प्रश्न था वहां तर्क की कोई गुंजाइश नहीं । जो कह दिया, वह मान लिया। वहां मानने की बात मुख्य बन जाती है और इसका बहुत बड़ा महत्त्व है । हमने अभी साधना की दृष्टि से इसका मूल्यांकन नहीं किया । हमने श्रद्धा का प्रयोग ज्ञान के क्षेत्र में किया जो कि नहीं होना चाहिए । श्रद्धा का प्रयोग मात्र साधना के क्षेत्र में होना चाहिए । ज्ञान का क्षेत्र श्रद्धा का क्षेत्र नहीं है। वहां तो बहुत तर्क किया जा सकता है। सारे कठोर तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं। किन्तु श्रद्धा का क्षेत्र है-साधना का क्षेत्र । हमारा मन जितना निर्विकल्प होगा, वह काम हो जाएगा, बिलकुल हो जाएगा। एक भी विकल्प उठा तो आप मान लीजिए कि सफलता भंग हो गई। कुछ भी नहीं। थोड़ी-सी रेत उठाई पानी में डालकर पी ली भयंकर बीमारी मिट गई। क्या वह रेत का कोई चमत्कार है । इस भ्रम में न जाएं कि यह किस व्यक्ति के पैर की रज है। यह श्रद्धा का चमत्कार है । मन में इतना दृढ़ विश्वास हो गया तो जो होने वाला है, वह निश्चित ही वैसा हो जाएगा। उसमें कोई अन्तर आने वाला नहीं है। कोई ताकत ऐसी नहीं जो उसको बदल दे । किन्तु श्रद्धा निश्छिद्र होनी चाहिए, प्रगाढ़ होनी चाहिए। हमारा समर्पण वैसा होना चाहिए। हमारे अहंकार और ममकार का पूर्ण विलय होना चाहिए। आचार्य भिक्षु ने कहा- कोई किसी का शिष्य नहीं होगा, शिष्या नहीं होगी। सारे शिष्य आचार्य के होंगे। जयाचार्य ने व्यवस्था की कि पुस्तक पन्ने अपने नहीं होंगे। यह क्यों? ममकार को मिटाने के लिए। जब तक ममकार नहीं मिटेगा, समर्पण पूरा होगा नहीं, काम पूरा बनेगा नहीं। जब तक अहंकार नहीं मिटेगा. समर्पण होगा नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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