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मेरी दृष्टि है-हम अपने निर्मल चैतन्य को देखने का प्रयत्न करें। उसमें जो प्रतिबिम्ब होगा, वह वास्तविक होगा।
सर्जन का मूल मंत्र है-सतत जलते रहना, कभी नहीं बुझना। यह है-अप्रमाद का सूत्र। तुम कभी मत बुझो, निन्तर जलते रहो। वे दीपक प्रिय नहीं होते जो रात को जलते हैं और दो घंटे बाद बुझ जाते हैं। वह दीपक प्रिय होता है। जो एक बार जल गया तो जल ही गया। वही ज्योति ज्योति होती है जो अखंड ज्योति के रूप में निरन्तर जलती रहे।
सर्जन का यही मूल मंत्र है। वही सृष्टि प्रिय हो सकती है जो नये-नये उन्मेष पैदा कर सके, उन्हें संभाल सके, उनका संरक्षण और पोषण कर सके।
सृष्टि का आदि बिन्दु है आत्मा और चरम बिन्दु है आत्मा। जब तक वह उपलब्ध न हो जाए तब तक पुरुषार्थ चलता रहे, प्रकाश मिलता रहेगा। हाथ-पैर हिलते रहें, प्रकाश मिलता रहेगा। जिस क्षण पुरुषार्थ बन्द हुआ, प्रकाश ढंक जाएगा, सर्जन चुक जाएगा। सर्जन का घटक है पुरुषार्थ ।
मैंने इन निबन्धों में दर्शन और सर्जन का विमर्श किया है। उसके अनेक आयाम हैं। पाठक उन आयामों में दोनों का स्पर्श करने का प्रयत्न करे, उसे कुछ आलोक प्राप्त होगा।
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