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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि और क्या है ? इस पर विचार किए बिना उसके स्वरूप का बोध नहीं हो सकता।
द्रव्य के बाद विचारणीय बिन्दु है क्षेत्र । क्योंकि इसके बिना किसी द्रव्य पर विचार नहीं हो सकता । क्षेत्र की व्याख्या काल के बिना नही हो सकती । भाव वस्तु का अविच्छिन्न धर्म होता है । वस्तु परिवर्तनशील है इसलिए उसके विभिन्न पर्याय हैं, अवस्थाएं दूसरी अवस्था से सापेक्ष रहती हैं, तभी वह वस्तु का धर्म बन सकती है। इसलिए किसी भी तत्त्व को समझने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सापेक्षता आवश्यक है।
तीसरा नियम है परिणमन का । प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य होता है। वह न तो एकान्ततः नित्य ही हो सकता है और न अनित्य ही। यह विरोधी-युगल वस्तु के मूल स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। केवल नित्यता और केवल अनित्यता के आधार पर किसी वस्तु की व्याख्या हो नहीं सकती। क्योंकि वस्तु की त्रैकालिक सत्ता और उसमें घटित होने वाले परिवर्तन स्पष्ट हैं । जो स्पष्ट है, उसे अस्वीकृत भी कैसे किया जा सकता है ?
पदार्थ को अनित्य मानने वाले दार्शनिक परिवर्तन की बात स्वीकार करते हैं, पर केवल परिवर्तन आधार शून्य रह जाता है। उसकी कोई युक्ति-संगत व्याख्या नहीं मिलती। प्रवाह या किसी अन्य कल्पना से भी यह समस्या नहीं सुलझती। इसलिए विश्व की व्याख्या के लिए युक्ति-संगत नियम ‘परिणामी नित्य' का सिद्धांत ही हो सकता है। ___ परिणाम का अर्थ है बदलना या भिन्न-भिन्न होना । इस क्रम से सारा संसार भेद प्रधान हो जाता है । कुछ दार्शनिक समष्टि चेतना को स्वीकार करते हैं । उसके अनुसार जगत् के मूल में एक तत्त्व काम करता है । इस प्रश्न पर सापेक्षता की दृष्टि से विचार करें तो एक नियम बनता है भेदाभेद का-कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद। ऐसा कोई तत्त्व है ही नहीं जिसे एकान्ततः भेद-प्रधान या अभेद-प्रधान कह सकें। क्योंकि ये दोनों परस्पर विच्छिन्न नहीं हैं, कटे हुए नहीं है। निष्कर्ष यह है कि समूचे संसार के मूल में एक सूत्र भी है और प्रत्येक द्रव्य व्यक्तिशः भिन्न भी है।
विश्व व्याख्या के इस चौथे नियम में भेद और अभेद दोनों सापेक्ष हैं । भेद की ओर चलते जाएं तो ठेठ परमाणु तक पहुंच हो जाएगी। वैज्ञानिक दृष्टिकोण भेद-प्रधान होता है । वह संश्लेषण की अपेक्षा विश्लेषण अधिक करता है । किन्तु
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