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________________ १३४ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि भीतर न आने पाए। वह बोलाल्आप चिन्ता न करें, दरवाजे में ताला लगा है, चाबी मेरे पास है, मेरी स्वीकृति के बिना कोई भी भीतर नहीं आ सकता जब हमारा दृष्टिकोण सही नहीं है तो समस्या का समाधान नहीं हो सकता। महावीर को मानना पर्याप्त बात नहीं है, छोटी बात है । महावीर को जानना, उससे आगे की बात है। जो लोग मान्यता के घेरे में बैठे हैं, वे महावीर को नहीं समझ सकते । महावीर को जानना बड़ी बात है, पर वह भी अन्तिम बात नहीं है । अन्तिम बात है महावीर को जीना। जिन लोगों ने दर्शन को माना है. स्वीकति दी है, वे दर्शन के साथ न्याय नहीं कर सकते । जब तक दर्शन को जीया नही जाता, तब तक उसका कोई बहुत मूल्य नहीं होता। महावीर ने स्वयं साधना का जीवन जीया था। वे किसी दर्शन को लेकर नहीं चले, किसी मान्यता को लेकर नहीं चले। साधना का जीवन जीते हुए उसमें से जो तत्त्व निकला वह महावीर का दर्शन बन गया। सबसे बड़ी समस्या यह है कि परतंत्रता का एक चक्र चलता है दुनिया में और वह स्वतंत्र रूप से जीने नहीं देता । महावीर की प्रथम घोषणा है—'प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है । किसी को किसी पर हुकूमत करने का कोई अधिकार नहीं है।" यह स्वतंत्रता का महान आदर्श भगवान महावीर ने सम्पूर्ण मानव समाज के सामने प्रस्तुत किया जो आज भी बहुत मूल्यवान बना हुआ है। इसी प्रकार स्वतंत्रता की भी अपनी समस्या है। जहां स्वतंत्रता होगी वहां भिन्नता भी होगी, विचार-भेद होगा। आदमी यंत्र नहीं है। हर व्यक्ति अपने चिन्तन में स्वतंत्र है तो भिन्नता स्वाभाविक है। समस्या तब पैदा होती है जब स्वतंत्रता सृजन करती है भिन्नता का। और भिन्नता विरोध के लिए बनाई जाती है । इस समस्या के समाधान के लिए महावीर ने समता का दर्शन दिया । बीच में आने वाली भिन्नता स्वयं समाप्त हो जाएगी। वह हमारे लिए श्रृंगार बनेगी, बाधक नहीं। हमारी पांचो उंगलियां स्वतंत्र हैं। यदि ये पांचों एक हो जाती तो आदमी का सारा विकास ठप्प हो जाता। आदमी का सारा विकास हो रहा है इसीलिए कि उसे दस उंगलियां प्राप्त हैं । यह विचार-भेद, चिन्तन-भेद, सम्प्रदायभेद महावीर के दर्शन के अनुसार कोई अस्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है। इसे कभी मिटाया भी नहीं जा सकता। आदमी जब तक आदमी है, उसे जब तक सोचने का अधिकार है, अपने पैरों पर जब तक चलने का अधिकार है तब तक इस भिन्नता को कभी मिटाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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