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मैं मनुष्य हूं (१)
आरोहण के लिए आलम्बन चाहिए। संस्कृत साहित्य में कहा गया है कि लता, पण्डित और स्त्री तीनों को आगे बढ़ने के लिए सहारा चाहिए, कोई आश्रय चाहिए। प्राणी विकास की प्रक्रिया से गुजरता है, उसे कोई आलम्बन चाहिए। 'मैं मनुष्य हूं'-यह सबसे बड़ा आलम्बन है। हमारे जगत् में दो प्रकार के तत्त्व हैं--प्राणी और अप्राणी। जिसमें प्राणशक्ति होती है, जीवन-शक्ति होती है, प्राण का स्पन्दन और प्रकन्पन होता है, वह प्राणी है। एक ऐसा भी तत्त्व है जिसमें प्राण का प्रकम्पन नहीं है, वह अप्राणी है। हम प्राणी वर्ग में आते हैं। हम सांस लेते हैं। हमारा हृदय धड़कता है। हमारे में प्राण का प्रकंपन होता है। प्राण हमारे जीवन का लक्षण है। जीवन एक बात है और विज्ञान उसका अलग चरण है। सभी प्राणी विज्ञान की चेतना को उपलब्ध नहीं होते। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसे विज्ञान की चेतना उपलब्ध है। पुरानी भाषा में विज्ञान का अर्थ है-विवेक चेतना या अनुभव चेतना। आज की भाषा में विज्ञान का अर्थ है-विवेक चेतना या अनुभव चेतना का विकास या परिणामात्मक चेतना का विकास।
____ यह विज्ञान हर प्राणी को उपलब्ध नहीं होता, केवल मनुष्य को ही उपलब्ध होता है। हम मनुष्य हैं-यह एक बहुत बड़ा आलम्बन है ऊर्ध्वारोहण के लिए, चेतना के विकास के लिए। हमारी दो शक्तियां हैं-एक है प्राण की शक्ति, दूसरी है चेतना की शक्ति। ये दोनों शक्तियां मनुष्य को शेष सब प्राणियों से भिन्न करती हैं । वनस्पति जगत् से पशु-पक्षी जगत् तक जितने भी प्राणी हैं, उन प्राणियों से मनुष्य को भिन्न करने वाली शक्ति है चेतना का विकास. विवेक की शक्ति, अनुभव की शक्ति। मनुष्य ही विवेक कर सकता है और विशिष्ट प्रकार का अनुभव कर सकता है। हम मनुष्य हैं इसलिए चेतना के विकास के अधिकारी
भर्तृहरि ने मनुष्य और पशु के बीच में एक भेद-रेखा खींची। उन्होंने बताया-आहार, नींद, भय और मैथुन-ये चार सामान्य वृत्तियां हैं। ये पशु में भी होती हैं, मनुष्य में भी होती हैं। इनके द्वारा पशु और मनुष्य में कोई भी भेद नहीं किया जा सकता। उनके बीच कोई भेद-रेखा है तो वह है-धर्म । धर्म के द्वारा पशु और मनुष्य में भेद किया जा सकता है।
शब्द की अपनी शक्ति होती है। शब्द के अर्थ का विकास भी होता है, हास भी होता है। भाषा-विज्ञान के नियम को जानने वाले इस बात को जानते हैं कि
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