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________________ इच्छा और अनुशासन आचार्य तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के और अणुव्रत के अनुशास्ता हैं। अनुशास्ता को सहज ही अनुशासन-प्रिय होना होता है। उन्होंने एक ग्रन्थ लिखा है-'मनोनुशासनम्' । इसका अर्थ है-मन का अनुशासन । वर्तमान युग का सबसे अधिक लुभावना और आकर्षक शब्द है-मन का अनुशासन। आज मन की समस्याएं जितनी जटिल हैं उतनी संभवत: पहले कभी नहीं थीं। पहले भी मन रहा है, समस्याएं भी रही हैं, किन्तु मन की समस्या उतनी जटिल नहीं रहीं। आज के उद्योगवाद और परिस्थिति ने आदमी को इतना व्यस्त बना दिया कि मानसिक उद्वेग और आवेग प्रबल हो गए। वर्तमान का युग संचार बहुलता का युग है। घटना कहीं भी घटित होती है, आदमी उसे जान लेता है। पुराने जमाने में ऐसा नहीं होता था। घर की घटना पड़ोसी से भी अज्ञात रह जाती थी। आज वैसा नहीं होता। भारत के किसी भी कोने में घटित होने वाली घटना समूचे विश्व में क्षण भर में फैल जाती है। संचार के साधन इतने विविध और तीव्रगामी हो गए हैं कि बात का फैलाव क्षण भर में हो जाता है। मानसिक समस्याओं का यह भी एक बड़ा कारण है। आज के युग ने मानसिक उलझनों के लिए जैसी उर्वर भूमि तैयार की है, वैसी उर्वर भूमि पहले कभी तैयार नहीं थी। इस स्थिति में 'मन का अनुशासन'-यह शब्द बहुत आकर्षित करता है। यह प्रत्येक व्यक्ति को बांध लेता है। प्रश्न होता है-क्या मन का अनुशासन प्रारम्भ में ही होने वाली घटना है या इसका भी क्रम है? क्या यह खिचड़ी को बीच में से खाने जैसा उपक्रम नहीं है? शिवाजी हारते गए। जब कभी उन्होंने युद्ध का उपक्रम किया, हार गए। एक बार वे परिवर्तित वेश में बढ़िया के घर पहुंचे। बुढ़िया ने घर आए अतिथि का मनोयोग से आतिथ्य किया। एक थाली में खिचड़ी परोसी। धी परोसा। खिचड़ी की सुगन्ध ने उनकी भूख को और अधिक तेज कर दिया। खाने की उतावली में शिवाजी ने खिचड़ी के बीच हाथ डाला। हाथ जलने लगा। कवल नहीं ले पाएं। बुढ़िया ने देखा। उसने मुस्कराते हुए कहा-बेटा! लगता है तुम भी शिवाजी जैसे मूर्ख हो? यह सुनते ही शिवाजी चौंके! शिवाजी और मूर्ख! यह कैसे मां! उन्होंने पूछा। बुढ़िया बोली-बेटा! देख, शिवाजी ऐसा ही तो कर रहा है। वह शत्रु की राजधानी पर आक्रमण करता है। वहां शत्रु सेना का संचय होता है। शिवाजी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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