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मैं कुछ होना चाहता हूं
के प्रभाव से कौन मुक्त है? पुराने जमे हुए संस्कार, वृत्तियां, संज्ञाएं पग-पग पर आदमी को विवश करती हैं, बाध्य करती हैं। अतीत की सांकल से बंधा हुआ आदमी दौड़ रहा है। बड़ा आश्चर्य है कि सांकल से छूटा हुआ आदमी दौड़ सकता है, पर सांकल से बंधा हुआ आदमी दौड़े, यह बड़ी विचित्र बात लगती है। ठीक कहा है एक संस्कृत कवि ने
आशा नाम मनुष्याणां, काचिदाश्चर्यश्रृंखला। यया बद्धा: प्रधावन्ति, मुक्ता: तिष्ठति पंगुवत् ।।
आशा नाम की एक अजीब सांकल है। बड़ी विचित्र साकल है कि उससे बंधे हुए आदमी तो दौड़ते हैं और उससे छुटे हुए आदमी पंगु की तरह बैठे रह जाते हैं।
अतीत से बंधा हुआ आदमी बहुत चक्कर लगाता है। अतीत का हमारे मन पर बहुत प्रभाव है। मनोविज्ञान ने मन को तीन भागों में बांट दिया--अवचेतन मन और चेतन मन । आदमी चेतन मन के सहारे जो कार्य करता है वे चेतन मन की अपनी घटनाएं नहीं होतीं, वे प्रभावी घटनाएं होती हैं। यह प्रभाव बाहर से भी आता है और भीतर से भी आता है। अवचेतन मन में जमे हुए संस्कार, अवचेतन मन में जमी हुई प्रतिक्रियाएं, अवचेतन मन में जमे हुए प्रतिशोध के भाव जब-जब उभरते हैं तब-तब चेतन-मन सक्रिय होता है, वैसा ही अभिनय करने लग जाता है। चेतन मन तो बेचारा अभिनय करने वाला है। यदि अभिनय का मूलस्रोत न बदले तो अभिनय करने वाले का क्या बदलेगा? आज किसी ने एक अभिनय किया, कल दूसरा अभिनय करने लग जाएगा, परसों तीसरा अभिनय करने लग जाएगा। आज क्रोध का अभिनय किया, कल अहंकार का अभिनय करने लग जाएगा, परसों लालच का अभिनय करने लग जाएगा, कभी माया का अभिनय करने लग जाएगा, कभी भय का, कभी वासना का। ये अभिनय इस रंगमंच पर निरन्तर चलते ही चलेंगे। कहां अन्त होगा इनका। जब तक अवचेतन मन में, हमारे अज्ञात और सूक्ष्म मन में भरी हई प्रेरणाएं नहीं मिट जातीं, नहीं घुल जाती, तब तक इस अभिनय का अन्त नहीं होगा। यह ध्यान का उपक्रम वर्तमान को मिटाने का उपक्रम नहीं है। यह अभिनय के मूलस्रोत को मिटाने का उपक्रम है। बगीचे में लिखा हुआ था बोर्ड पर, फूल तोड़ना मना है। एक लड़का गया और पौधा उखाडने लगा। माली ने कहा-क्या करते हो? पढ़ा नहीं तुमने, बोर्ड पर क्या लिखा है? उसने कहा-पढ़ लिया, तभी तो यह कर रहा हूं, वहां लिखा है-फूल तोड़ना मना है। मैं फूल कैसे तोड़ सकता था? कहां लिखा हैं-पौधे तोड़ना मना है? मैं तो पौधे ही उखाड़ रहा हूं, फूल कहां तोड़ रहा हूं?
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