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________________ १०४ मैं कुछ होना चाहता हूं आंखों से की जाने वाली प्रक्रिया है। न शीशे के सामने खड़े होना है, न प्रतिबिम्ब को देखना है और न आंखें खुली रखनी है। किन्तु हम खुली आंखों से देखने के अभ्यासी हैं। प्रतिबिम्बों को देखते-देखते हमारी चेतना भी प्रतिबिम्ब की चेतना बन गई है। मूल चेतना खो गई। प्रतिबिम्ब और परछाइयों की चेतना हस्तगत हो गई। हम परछाई को पकड़ना चाहते हैं। सामान्यत: परछाई पकड़ में नहीं आती. उसको पकड़ने के भी उपाय हैं। एक बालक धूप में खड़ा था। अपनी परछाई को देखकर उसके मन में कुतूहल हुआ। वह परछाई में दीख रही अपनी चोटी को पकड़ने दौड़ा। परछाई भी दौड़ने लगी। बालक दौड़ता रहा, पर परछाई को पकड़ नहीं पाया। वह थक कर चूर हो गया। इतने में पिता ने उसे देख लिया। वे आए। बालक बोला-मैं परछाई में दीख रही चोटी को पकड़ना चाहता हूं, पर वह पकड़ में आती ही नहीं। पिता ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा-अभी पकड़ में आ जाएगी। तुम दौड़ो मत, ठहर जाओ। बालक ठहर गया। पिता ने उसका हाथ पकड़ा, हाथ को सिर पर ले जाकर चोटी पकड़वा दी। अब परछाई की चोटी भी बालक के हाथ में थी। परछाई या प्रतिबिम्ब को नहीं पकड़ा जा सकता । जब मनुष्य की चेतना प्रतिबिम्बों की चेतना बन जाती है तब भ्रम उत्पन्न होते हैं, अनेक भ्रांतियां पनपती हैं। ध्यान की साधना यथार्थ की साधना है, प्रतिबिम्ब से परे जाने की साधना है। हम प्रतिबिम्बों में ही उलझते न रहें, मूल तक पहुंचने का प्रयत्न करें। वर्तमान जीवन की समस्याएं, फिर वे सामाजिक हों या आर्थिक, सामूहिक हों या वैयक्तिक, प्रतिबिम्बों के आसपास चक्कर काटती हैं। यदि यथार्थ को पकड़ा जा सके तो अनेक समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। आज की स्थिति यह है कि मूल निर्मूल्य हो रहा है और प्रतिबिम्ब मूल्यवान माना जा रहा है मूलस्पों न खलु सुलभो दृष्टिरेषास्ति मुग्धा, प्रायो लोक: प्रतिकृतिरतो मूल्यदाने विचक्षुः । चित्रं मूल्यं नयति विपुलं चैकतश्चित्रकक्षे, यस्या नार्या मुहुरवमता भिक्षते चैकत: सा: । एक कलाकार ने गांव की एक सुन्दर स्त्री का चित्र चित्रित किया। कालान्तर में उसने उस चित्र को अपनी चित्र-प्रदर्शनी में रखा। एक व्यक्ति ने उसे दस हजार में खरीद लिया। वह चित्र लेकर बाहर आया। एक भिखारिन भीख मांग रही थी। उसने उसे दुत्कारा। उस भिखारिन की दृष्टि चित्र पर पड़ी। उसी का वह चित्र था। मूल को दुत्कार मिल रही है और प्रतिबिंब दस हजार का मूल्य पा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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