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अहेतुक नहीं है आतुरता
चक्षुष्मान् !
आतुरता एक मनोदशा है।
कोई व्यक्ति कामातुर है और कोई रोगातुर ।
"
तुम ध्यान से देखो - आगे पीछे, दाए, बाएं आतुरता की एक श्रृंखला मिलेगी ।
आतुरता अहेतुक नहीं है। उसकी जन्म भूमि प्रमाद है । यदि हमारी दुनिया में आतुरता नहीं होती तो अप्रमत्त रहने की बात बुद्धि से परे नहीं होती ।
इन्द्रिय चेतना मनुष्य को प्रमाद की ओर ले जाती है ।
राग और द्वेष स्वयं प्रमाद हैं ।
प्रमाद ने मानवीय मस्तिष्क को विक्षेप दिया है ।
विक्षेप ने आतुरता पैदा की है।
आतुरता ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है।
इन सारी स्थिति को देखकर द्रष्टा ने कहा- -अप्रमत्त रहो। तुम
स्वयं प्रमाद और उसने उत्पन्न आतुरता को नहीं देखोगे तब तक अप्रमत्त रहना कठिन होगा ।
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इसीलिए महावीर ने कहा
1 फरवरी, 1997
चाड़वास
पासिय आउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए ।
सुप्त मनुष्यों को आतुर देखकर वीर पुरुष निरन्तर अप्रमत्त रहे।
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अपथ का पथ
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