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संधि को दुखी
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चक्षुष्मान् !
एक विधवा स्त्री से किसी ने पूछा- तुम इतनी प्रसन्न कैसे रहती हो ?
उसका उत्तर था - मैंने सारे छिद्रों को रोक दिया है। समुद्र उसी जलपोत को डुबोता है, जिसमें छिद्र हो जाते हैं। निश्छिद्र जलपोत समुद्र की छाती को चीरकर तट पर पहुंच जाता है। मैंने सब छिद्रों को बंद कर दिया है, इसलिए मुझे वैधव्य दुःखी नही बनाता । दरवाजा बंद है, धूल कैसे आएगी।
अध्यात्म का रहस्य है- संधि को देखो, विवर को देखो, जो विवर तुम्हें दुःखी बनाने के लिए दुःख की धूली को प्रवेश दे रहा है।
पहले छिद्र को जानो, फिर उसे रोकने का प्रयत्न करो।
शरीर में नौ छिद्र हैं, यह स्थूल अवधारणा है। सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करने पर पता चलता है-शरीर में हजारों-हजारों छिद्र हैं । वे छिद्र ही समस्या बने हुए हैं।
नीति का सूक्त है-छिद्र बहुत अनर्थ पैदा करते हैं-छिद्रेष्वनाः बहुलीभवन्ति।
महावीर ने इस सत्य के प्रति जागरूक किया। उनकी वाणी हैसंधिं समुप्पेहमाणस्स णत्थि मग्गे । जो कर्म-विवर को देखता है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है।
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1 फरवरी, 1996 जैन विश्व भारती
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अपथ का पथ
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