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लगाम को संभाली
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चक्षुष्मान् !
मनुष्य की शाश्वत चाह है—दुःख से छुटकारा मिले।
उसकी पूर्ति के लिए मनुष्य ने अनेक उपाय खोजे । उनकी एक श्रृंखला बन गई।
आज भी खोज जारी है।
दुःख है। उससे छुटकारा पाने के लिए नए-नए उपाय खोजे जा रहे हैं।
पदार्थवादी अन्वेषकों ने दुःख को मिटाने वाले नए-नए पदार्थों को खोजा।
अध्यात्मवादी पश्यकों ने देखा-दुःख का उपादान बाहर नहीं है।
यदि वह बाहर होता तो पदार्थवादी लोग मनुष्य को पहले ही सुखी बना देते । पर ऐसा नहीं हुआ है।
खोज की दिशा बदली । भीतर का दरवाजा खुला, देखा-दुःख का उपादान अपने भीतर है और वह है इन्द्रियों की उन्मुक्त प्रवृत्ति । घोड़ा दौड़ रहा है। लगाम हाथ में नहीं है।
महावीर ने कहा- यदि दुःख से छुटकारा चाहते हो तो लगाम को संभालो । चेतना के उस जगत् में प्रवेश करो, जहां सुख-दुःख की भाषा को कोई नहीं जानता।
महावीर के इस स्वर का पुनरुच्चार हैपुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमोक्खसि । पुरुष ! स्वयं का ही निग्रह कर, ऐसे दुःख मुक्त होगा तू ।
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1 मई, 1995 बीदासर
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अपथ का पथ
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