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________________ दर्शन का मूल है संशय चक्षुष्मान् ! संशय दर्शन का मूल है । जिसके मन में संशय नहीं होता — जिज्ञासा नहीं होती, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम के मन में जब-जब संशय होता, तब वे भगवान् के पास जाकर उसका समाधान लेते । संशयात्मा विनश्यति — संशयालु नष्ट होता है। इस पद में संशय का अर्थ संदेह है। न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति — संशय का सहारा लिए बिना मनुष्य कल्याण को नहीं देखता । इस पद में संशय का अर्थ जिज्ञासा है । संसार का अर्थ है— जन्म-मरण की परम्परा । जब तक उसके प्रति मन में संशय नहीं होता, वह सुखद है या दुःखद, ऐसा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, तब तक वह चलता रहेगा। उसके प्रति संशय उत्पन्न होना ही उसकी जड़ में प्रहार करना है । 1 मार्च, हांसी संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति । संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति । जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है—श्रेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है । जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान पाता । 1995 अपथ का पथ Jain Education International For Private & Personal Use Only 31 www.jainelibrary.org
SR No.003078
Book TitleApath ka Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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