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आसक्कि और उपयोगिता
चक्षुष्मान् !
इस जगत् में कोई व्यक्ति अकेला नहीं है।
भले वह महानगर में हो, भीड़ में घिरा हुआ हो अथवा हिमालय के उच्चतम शिखर पर आरोहण कर रहा हो ।
मन में भीड़ है विचारों की और भाव जगत् में भीड़ है संवेगों की, संस्कारों की।
अनेकान्त की भाषा में केवल निषेध नहीं, स्वीकार भी है। मनुष्य अकेला रह सकता है यदि वह ज्ञानी है, पथ के पार देखने वाला है। वह इस पदार्थ जगत् को भिन्न दृष्टि से देखता है।
देखने के दो कोण हैं-आसक्ति और उपयोगिता ।
अकेला वह हो सकता है, जिसकी दृष्टि में पदार्थ के साथ मात्र उपयोगिता का सम्बन्ध है, उसे अपना मानने का विभ्रम नहीं है ।
पदार्थ को आसक्ति के कोण से देखने वाले में अपनेपन की भावना प्रबल हो जाती है, उपयोगिता गौण ।
जो पदार्थ से जुड़ गया, वह अकेला नहीं हो सकता। इस सत्य का उद्भावन महावीर ने किया था
से हु एगे संविद्धपहे मुणी अण्णहा लोगमुवेहमाणे।
ज्ञानी मनुष्य ही अकेला रह सकता है, जो पदार्थ जगत को अनासक्ति की दृष्टि से देखता है।
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1 जनवरी, 1995 अध्यात्म साधना केन्द्र नई दिल्ली
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अपथ का पथ
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