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________________ 29 द्रुष्ठा का व्यवहार चक्षुष्मान् ! - आँख वाले बहुत हैं पर वे विरल जो देखते हैं। आचारांग का पश्यक् कोरा सचक्षु नहीं है । वह द्रष्टा है। द्रष्टा वह होता है, जिसका अंतश्चक्षु उद्घाटित हो जाता है । उसका साक्ष्य होता है उसका व्यवहार । वह खाता है पर भोजन उसे कभी नही खाता । वह बोलता है पर वाणी उस पर आक्रमण नहीं करती। वह सोचता है पर चिन्तन उसके लिए कभी सिरदर्द नहीं बनता, तनाव पैदा नहीं करता। उसका सारा जीवन व्यवहार बदल जाता है। वह महल में रह सकता है पर उसके दिमाग में कभी महल नहीं रहता। भगवान महावीर ने इस सत्य का उद्घाटन इन शब्दों में किया-अण्णहा णं पासह परिहरेज्जा। उपाध्याय यशोविजयजी ने इसका तात्पर्यार्थ लिखा है आतुरैरपि जडैरपि साक्षात्, सुत्यजा हि विषयाः न तु रागः । ध्यानवांस्तु परम द्युतिदर्शी, तृप्तिमाप्य न तमृच्छति भूयः ॥ एक बीमार और एक जड़ व्यक्ति विषय को छोड़ सकता है किन्तु वह उसके प्रति होने वाले राग को नहीं छोड़ पाता। द्रष्टा वह है, जो विषय वस्तु के प्रति होने वाले राग या आसक्ति को छोड़ दे। - - - 1 मई, 1993 रतनगढ़ अपथ का पथ 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003078
Book TitleApath ka Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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