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प्रस्तुति
जीवन एक महाग्रन्थ है। उसकी अनेक व्याख्याएं लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं। अवकाश बना हुआ है, इसलिए भविष्य में लिखी जाती रहेंगी। जीवन का एक पक्ष शारीरिक है, वह दृश्य है। चर्म, मांस और अस्थि से संवलित है। उसका दूसरा पक्ष चैतन्य है। वह हमारी ईश्वरीय सत्ता है। हम लोग शरीर से अधिक जुड़े हुए हैं इसलिए शरीर को अधिक भोग रहे हैं। जहां शरीर है वहां रोग है, बुढ़ापा है, जन्म है, मरण है, संयोग है, वियोग है, ये सब कुछ हैं। इन्हें भोगते समय सुख-दुःख की अनुभूति भी होती है। रोग और बुढ़ापे को भोगना और दुःखी होना एक बात नहीं है । दुःखी बने बिना उन्हें भोगा जा सकता है। यह तभी संभव है जब हम अपनी ईश्वरीय सत्ता के साथ संपर्क स्थापित करें।
जीवन ग्रन्थ के एक अध्याय को पढ़ने वाला अच्छा जीवन नहीं जी सकता। अच्छा जीवन जीने के लिए दूसरा अध्याय पढ़ना भी नितान्त आवश्यक है । उसे पढ़ने पर ही आदत को बदलने का प्रश्न उपस्थित हो सकता है और प्रश्न उपस्थित हो सकता है अखंड व्यक्तित्व का। जीवन के दोनों अध्याय पृथक् होते हुए भी सर्वथा पृथक् नहीं हैं। उन्हें जोड़ने वाले दो सेतु हैं-मैत्री और जागरूकता । जिसने इन दो सेतुबन्धों का स्पर्श किया है वही सुख, शांति और सफलता का जीवन जी सकता है, नकारात्मक दृष्टि से हट कर सृजनात्मकता का उल्लासभरा पर्व मना सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक में यही दृष्टिकोण उभर कर सामने आया है। इसके संपादन में मुनि दुलहराजजी का श्रम मुखर हुआ है। आचार्यश्री का आशीर्वाद और अध्यात्म का प्रसाद-ये जन-जन तक पहुंच पाएंगे।
१०-१०-९६ जैन विश्व भारती
आचार्य महाप्रज्ञ
लाडनूं
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