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________________ जागरूकता : संतुलन की प्रक्रिया देखते सब हैं, पर सब देखना नहीं जानते । देखना वही जानता है जिसके पीछे चित्त की निर्मलता होती है । जिसके पीछे राग-द्वेष की धाराएं प्रवहमान होती है, वह देखना नहीं जानता । वह देखना नहीं जानता, इसीलिए वह असंतुलित रहता है । आदमी सबसे पहले अपने शरीर को देखता है। शरीर को देखना भी एक कला है । शीशे में शरीर का प्रतिबिम्ब देखना कोई कला नहीं है। आंखें मूंदकर शरीर को देखना बहुत बड़ी कला है, साधना है। शरीर को देखकर आदमी विकारग्रस्त भी हो सकता है और शरीर को देखकर वह वीतराग भी बन सकता है । देखने-देखने में बड़ा अन्तर है। सनत्कुमार को अपने सौन्दर्य पर गर्व था। एक बूढ़ा ब्राह्मण आया । प्रहरी ने उसे रोका । उसने सम्राट को देखने की तीव्र अभिलाषा व्यक्त की। प्रहरी ने उसे भीतर पहुंचा दिया। सम्राट को देखकर उनकी आंखें चुंधिया गईं। सौन्दर्य से वह अभिभूत हो गया । सम्राट ने पूछा- कहां से आये हो? आने का प्रयोजन बताओ। ब्राह्मण बोला-क्या बताऊं कहां से आया हूं? मैं जब चला तब जवान था और चलते-चलते बूढ़ा हो गया हूं। अब आप अनुमान कर लें कि मैं कितनी दूरी से आया हूं। मैंने आपके रूप सौन्दर्य की बहुत प्रशंसा सुनी। आपका रूप देखने आया हूं। सम्राट ने सुना। सम्राट का अहंकार बोल उठा-अभी क्या देखते हो? जब मैं राजसभा में जाऊं तब देखना । सम्राट ने विशेष तैयारी की । राजसभा में आया। बूढ़े को बुला भेजा। बूढ़े ने सम्राट् को देखते ही मुंह सिकोड़ लिया। सम्राट ने पूछा--कैसा लगा मेरा रूप । बूढ़ा बोला -'प्रात:काल में जो सौन्दर्य था, वह अब नहीं रहा । आपका सौन्दर्य नष्ट हो गया। शरीर अनेक रोगों से आक्रांत हो चुका है।' सम्राट् आश्चर्यचकित रह गया । उसे भान हुआ कि वास्तव में वह अनेक रोगों से आक्रांत है। शरीर, रूप और सौन्दर्य अहंकार के कारण बनते हैं। जब आदमी देखना नहीं जानता, तब शरीर अहंभाव का कारण बनता है, हीनभाव का कारण बनता है । जो देखना जानता है उसके लिए यह न अहं का कारण बनता है और न हीनभाव का कारण बनता है । सुकरात शीशे में देख रहा था। सामने शिष्य बैठा था। वह हंस पड़ा । सुकरात ने कहा- 'मैं जानता हूं तुम क्यों हंस पड़े ? मैं कुरूप हूं फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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