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अध्यात्म की चतुष्पदी
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अध्यात्म का अन्तिम चरण है अकेला होना । भगवान् महावीर ने इसको बहुत महत्त्व दिया । 'पस्सत्ता' अर्थात् एकत्व प्रतिमा । अकेले की प्रतिमा (साधना) को महावीर ने बहुत महत्त्व दिया । समूह में रहते हुए जिसने अकेला रहना सीख लिया, उसने तनाव मुक्ति का जीवन जीना सीख लिया । यह विरोधी बात लगती है-समूह में रहकर अकेला रहना । किन्तु अध्यात्म का सार यही है । यह नहीं कि अकेला गुफा में जाकर बैठ जाना । सबके बीच रहकर अकेले की अनुभूति करना बहुत बड़ा मंत्र है सफल जीवन का । यह साधना असंभव नहीं, कठिन अवश्य है । जब तक आदमी सत्य का साक्षात् नहीं करता तब तक वह कठिन लगता है । जब सत्य का साक्षात् हो जाता है तब जीवन सरस और आनन्दमय बन जाता है ।
हम अध्यात्म को अव्यावहारिक न बनाएं। हम ऐसी बातें न कहें जो समझ से परे हों, जैसे- चैतन्य का अनुभव करें, आत्मा को देखें आदि -आदि । ये इस मस्तिष्कीय जीवन से परे की बातें हैं, हमारी भूमिका से ऊंची बातें हैं। आध्यात्मिकता का अभ्यास व्यावहारिक होना चाहिए। ये चार अनुप्रेक्षाएं व्यावहारिक हैं । प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में हमने सोलह अनुप्रेक्षाएं स्वीकृत की । एक-एक अनुप्रेक्षा का अभ्यास महीनों तक किया जाता है, तब वे जीवनगत होती हैं । यह मार्ग समस्याओं के समाधान का अमोघ मार्ग है और अध्यात्म के शिखर पर आरोहण करने का भव्य सोपान भी है ।
जीवन विकास के लिए प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा का योग होना चाहिए । प्रेक्षा के बाद अनुप्रेक्षा और अनुप्रेक्षा के बाद पुनः प्रेक्षा । प्रेक्षा कुछ कठिन है, अनुप्रेक्षा सरल है । विचार परिवर्तन के लिए अनुप्रेक्षा का महत्त्व है । इससे मस्तिष्क का परिष्कार हो सकता है ।
अध्यात्म की इस चतुष्पदी को समझ लेने पर अध्यात्मवादी और भौतिकवादी की व्यावहारिक परिभाषा स्पष्ट समझ में आ जाती है । इससे अध्यात्मवाद की अतिवादी धारणाओं से बचा जा सकता है ।
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