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अश्रुवीणा / ५९
श्रद्धां हृदय्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु।
ऋग्वेद 10/151/4 ऋग्वेदी ऋषि श्रद्धा की महनीयता को जानकर उसकी उपासना में तल्लीन दिखाई पड़ता है। वह श्रद्धा से स्तुति करता है -
श्रद्धां प्रातर्ह वामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि श्रद्धां सूर्यस्य निम्रचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः।
___ 10.151.5 हम प्रात:काल में, मध्याह्न में और सूर्यास्त बेला में श्रद्धा की उपासना करते हैं। हे श्रद्धा! हमें इस विश्व में अथवा कर्म मे श्रद्धावान् कर । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण श्रद्धावान् को ही ज्ञान का अधिकारी माना है -
श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
गीता 4.39 अर्थात् इन्द्रियसंयमी और श्रद्धावान् ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त होने पर शीघ्र परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।
इस प्रकार श्रद्धा का महत्त्व सर्वस्वीकृत है। अलग से विस्तारपूर्वक इस विषय पर प्रकाश डाला जाना वांछनीय है।
इस श्लोक में काव्यलिंग अलंकार है। श्रद्धा का स्वाभाविक चित्रण होने से स्वभावोक्ति अलंकार भी है - स्वभावोक्तिश्च डिम्भादे स्वक्रियारूपवर्णनम्
काव्यप्रकाश 10.168 पर्याय वक्रता, उपचार वक्रता, विशेषणा वक्रता तथा निपात वक्रता की दृष्टि से यह श्लोक उत्कृष्ट है।
माधुर्य गुण विद्यमान है।
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