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अश्रुवीणा / ५७ ञ्च, न्द्र, त्ते आदि माधुर्य व्यंजक वर्गों का विन्यास हुआ है। मम्मट के अनुसार माधुर्य गुण की परिभाषा है -
आह्लादकत्वं माधुर्य शृङ्गारे द्रुतिकारणम् करुणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम् ॥
काव्यप्रकाश 8.68-69 अर्थात् आह्लादक माधुर्य है जो द्रुतिकारक है। शृंगार, करुण, विप्रलम्भ और शान्तरस में इसका अतिशय प्रयोग होता है । चित्त की आर्द्रता को द्रुति कहते हैं जो आरौँ, पुलक आदि बाह्यचिह्नों से लक्षित होता है :
चित्तस्यार्द्रताख्यो नेत्राम्बुपुलकादिसाक्षिको वृत्तिविशेष इत्यर्थः - काव्यप्रकाश 8.68-69 पर झलकीकर टीका।
अलंकार - इस श्लोक में काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास अनुप्रास आदि अलंकारों का सुन्दर विनियोग हुआ है।
संयोगात्ते --- अमरेन्द्रं – काव्यलिंग प्रथम दो का अंतिम दो पंक्तियों से समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार
है
(३)
तत्रानन्दः स्फुरति सुमहान् यत्र वाणीं श्रिताऽसि, दुःखं तत्रोच्छ लति विपुलं यत्र मौनावलम्बा। किं वाऽऽनन्दः किमसुखमिदं भाषसे सप्रयोग,
त्वामाक्षिप्य स्वमतिजटिलास्तार्किका अत्र मूढाः॥ अन्वय - (हे श्रद्धे !) यत्र वाणीं श्रिताऽसि तत्र सुमहान् आनन्दो स्फुरति । यत्र (त्वं) मौनावलम्बा तत्र विपुलं दुःखं उच्छलति । किं आनन्दः किमसुखं वा इदं सप्रयोगं भाषसे। त्वामाक्षिप्य स्वमतिजटिलाः तार्किका अत्र मूढाः (भवन्ति )।
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