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५२ / अश्रुवीणा सहजाभिव्यक्ति, हृदय का स्वाभाविक रूप तथा सौन्दर्याधायक तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग किया जाता है। इस छन्द के माध्यम से शोक, करुणा, भक्ति, प्रेम आदि की अभिव्यक्ति सफल रूप से होती है। जिस काव्य में मर्म का प्रकाशन, हृदय का विगलन, भावना, कल्पना तथा संगीत का समन्वय हो उसमें मन्दाक्रान्ता का प्रयोग किया जाता है। विश्वप्रसिद्ध गीति काव्य मेघदूत मन्दाक्रान्ता छन्द में ही निबंधित है। अश्रुवीणा में चन्दनबाला के माध्यम से कवि का आत्मप्रकाशन हुआ है। इसलिए मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग उचित है। इसका लक्षण इस प्रकार है। आचार्य पिङ्गल ने छन्दशास्त्र में लिखा है - मन्दाक्रान्ता म् भौ न् तौ त्गौ ग् समुद्रतुस्वराः
छन्दशास्त्र 7.19 जिसके प्रत्येक पाद में मगण, भगण, नगण, दो तगण तथा दो गुरु वर्ण हों उसे मन्दाक्रान्ता कहते हैं। चौथे, छठे और सातवें स्थान पर यति होती है।
संस्कृत-हिन्दी कोश में आप्टे ने लक्षण निर्दिष्ट किया है - मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ ग युग्मम् अश्रुवीणा के प्रथम श्लोक का प्रथम पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत है :
मगण भगण नगण तगण तगण दो गुरु ssssss ssssssssssss
श्रद्धे! मुग्धान् प्रणयसि शिशून् दुग्धदिग्धास्यदन्तान् मंगलाचरण - ग्रंथ विरचन की निर्विघ्नं समाप्ति की कामना से ग्रंथारंभ में मंगलाचरण की शिष्ट परम्परा है- ग्रन्थारम्भेग्रन्थमध्ये ग्रन्थान्ते चमंगलमाचरणीयम्। आचार्य पतञ्जलि ने लिखा है - मंगलादीनि हि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाणि च भवन्ति आयुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति - महाभाष्य, प्रथमानिक। ___ अर्थात् जिन शास्त्रों का आरंभ मंगलाचरण से किया जाता है, वे प्रसिद्ध होते हैं, उनके अध्ययन करने वाले वीर होते हैं, दीर्घायु होते हैं, उनके पढ़ने वाले छात्रों के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होते हैं।
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