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अश्रुवीणा का गीतिकाव्यत्व । ३७
7. इष्टेऽनिष्टाद् व्रजति सहसा जायते तत्प्रकर्षों ॥17॥
जब व्यक्ति अनिष्ट से सहसा इष्ट को प्राप्त करता है तो उसे अपूर्व हर्ष का अनुभव
होता है। 8. कार्यारम्भे फलवति पलं न प्रमादो विधेयः,
सिद्धिर्वन्ध्या भवति नियतं यद् विधेयश्लथानाम् ॥27॥ कार्यारम्भ में प्रमाद करना ठीक नहीं होता है क्योंकि जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्य में
जागरूक नहीं होते उन्हें सफलता नहीं मिलती है। 9. यद् दुर्भेद्यप्तिमिरनिचयो नास्ति तादृक् त्रिलोक्याम् ॥28 ।।
चाटुकार जैसा कोई दूसरा दुर्भेद्य निविड़ अन्धकार तीन लोक में भी नहीं होता है। 10. त्राणं यस्मात् भवति न च भू:क्षीणमूलान्वयानाम् ।।30॥
जिनकी वंश परम्परा विलुप्त हो चुकी है उन्हें पृथ्वी भी त्राण नहीं दे सकती है। 11. यन् मूकानां न खलु भुवने क्वापि लभ्या प्रतिष्ठा ।।31॥
मूक-जनों को संसार में प्रतिष्ठा नहीं मिलती है। 12. कश्चिच्चित्रो भवति भुवने यन्महात्म-प्रभावः ।।35 ॥
संसार में महात्माओं का अद्भुत् प्रभाव होता है। 13. सोत्साहास्तं परमपरतो योगमाप्त्वा तरन्ति । 36 ॥ ___उत्साही व्यक्ति दूसरों का पर्याप्त सहयोग पाकर सभी बाधाओं को पार कर जाते हैं। 14. प्रारब्धव्यो लघुरथ गुरूर्वा विधि: संविमृश्य ॥39॥
कार्य छोटा हो या बड़ा, उसका प्रारम्भ विचारपूर्वक ही होना चाहिए। 15. यन्नोपेक्ष्या ध्रुवमतिथयः सङ्गमार्थाः प्रबुद्धैः ।40 ॥
प्रबुद्ध व्यक्ति मिलने के लिए आए हुए अतिथियों की उपेक्षा नहीं करते। 16. चिन्तापूर्वं कृतपरिचया एव सख्यं वरेहन् 141॥
सोच-विचार कर मैत्री करने वाले ही उसका निर्वाह कर पाते हैं। 17. नासंभाव्यं किमपि हि भवेद् पूतवंशोदयानाम्।।50 ।।
पवित्रता में जन्म पाने वालों के लिए कोई कार्य असम्भव नहीं होता है। इस प्रकार "अश्रुवीणा" एक श्रेष्ठ गीति-काव्य है।
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