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अश्रुवीणा का गीतिकाव्यत्व
'समत्व के सौम्य-सरोवर से निःसृत गांगेय धारा का नाम है- गीतिकाव्य। विरह, वेदना, भक्ति या श्रद्धा से जब वैयक्तिक स्थिति व्यक्तिगत न रहकर सांसारिक हो जाती है तब कहीं 'ललित-लवंग-लता-परिशीलन-कोमल-- मलय-शरीरे", रूप गीत-लहरियाँ लुलित होने लगती हैं। जहाँ स्वकीयत्वपरकीयत्व का सर्वथा अभाव हो जाता है, जहाँ 'क्षणे-क्षणे यन्नव-तामुपैति', ही शेष रहता है, वही स्थान गीतोदय के लिए उपयुक्त माना जाता है। चाहे विरहविदग्धा-भागवती गोपियों की गीत-सरणि हो या भक्त कवि जयदेव की मनोमय-स्वर-लहरियाँ या विरही यक्ष के कारुणिक-उद्गार हों या अश्रुवीणा की चन्दना का श्रद्धा-संचार, सबके सब दर्द की आह से ही निःसृत हुए हैं। आशावल्लरी जब सूखती नजर आती है, सामने से ही उसका जन्म-जन्मान्तरीय काम्य तिरोहित हो जाता है, तब कहीं उस अक्षत-यौवना गीताङ्गना का धरा पर अवतरण होता है । तब रूप राम का स्थान ले लेता है। काम का ग्राम शील का धाम बन जाता है।
गीति-काव्य का रचयिता भी का३ सामान्य नहीं होता। जिसने हृदय-नगर को देख लिया है, जिसके नेत्र हमेशा अपने प्रियतम के दर्शन के लिए लालायित रहते हैं, जो प्रेमी के लिए, आहें भरते-भरते 'हरिमवलोकय सफलय-नयने' को गुआरित कर सम्पूर्ण संसार को हरिमय किंवा आत्ममय बना देता है। उसी की अंगुलियों में गीति- वीणा के तार को झंकृत करने की शक्ति होती है । जिसने दर्द की आहे नहीं भरीं, जहाँ करुणा के आँसू तरंगायित नहीं हुए, वह जीवन सुख से वंचित ही माना जाएगा।
लोक एवं शास्त्र में जो सार्वजनीन विभूति के रूप में अधिष्ठित हो चुका है। वही व्यास की तरह गोपीगीत का, कालिदास की तरह मेघदूत का और
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