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अश्रुवीणा / १४९
आकृष्टम् अतुलम् गगनम् व्याप्य किम् अम्बुदः न स्यात्।
अनुवाद - श्रद्धे ! मुमुक्षु भगवान् के निकट धीरतापूर्वक जाना। तुम बँधे हुए शरीर में निवास करती हो इसलिए संकल्प-विकल्प (दुविधा) को मत प्राप्त हो जाना। छोटे घड़े में विद्यमान होते हुए भी जल सूर्य की अमोघ किरणों से आकृष्ट अतुल (अनन्त) आकाश को व्याप्त कर क्या (पुनः) बादल नहीं बन जाता है। __व्याख्या-यहाँ कविसाधक को सतर्ककर रहा है कि जब तक साधना सफल न हो जाए, गन्तव्य हाथ न लग जाए, फल प्राप्त न हो जाए, तब थोड़ा भी प्रमाद विनाश का कारण बनता है। उस समय और स्थिति गंभीर हो जाती है जब फल सामने दिखाई पड़ने लगता है, थोड़ी भी शिथिलता, थोड़ा भी संकल्प-विकल्प व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है। सुन्दर दृष्टान्त के द्वारा कवि ने इस तथ्य की अभिव्यंजना की है। जल पहले छोटे घड़े में रहता है, सूर्य की किरणों से आकृष्ट होकर आकाश व्यापी बन जाता है और पुन: मेघ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है इसलिए दृष्टान्त अलंकार का उदाहरण है। अर्थान्तरन्यास अलंकार एवं अर्थापति अलंकार भी है।
(७६)
आयातोऽपि व्रजति बहुलो याति लोको यथेच्छं, स्नेहं पीड़ा स्पृशति न मनो नानुबन्धोऽस्ति यत्र। श्रद्धापात्रं जनयति मुदं स्वागतश्चापि गच्छन्, नादायैव व्रजति हृदयं कः प्रियः कोऽप्रियो वा॥
अन्वय-बहुल: लोकः यथेच्छम् याति व्रजति। यत्र अनुबन्धो न अस्ति (तत्र) आयातो अपि मनः स्नेहम् पीड़ाम् (च) न स्पृशति । श्रद्धापात्रम् स्वागतः मुदम् जनयति अपि गच्छन् च हृदयम् आदाय एव व्रजति । कः प्रिय को अप्रियः न वा। __ अनुवाद-बहुल संसार (बहुत लोग) आता है जाता है। जिसमें अनुबन्ध (आसक्ति) नहीं होता, उसके आने पर भी मन में स्नेह या पीड़ा का संस्पर्श
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