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अश्रुवीणा / १४७ प्रस्तुत किया है। दृष्टान्त और काव्यलिंग अलंकार है । पर्वत का दृष्टान्त दिया गया है। प्रस्तरों के अग्रहण से तुम श्रेष्ठ हो और श्रेष्ठ भावनाओं के आश्रय हो काव्यलिंग।
(७३)
अन्धा श्रद्धा स्पृशति च दृशं तर्क एषाऽनृता धीः, श्रद्धा काञ्चिद् भजति मृदुतां कर्कशत्वञ्च तर्कः। श्रद्धा साक्षाज्जगति मनुते कल्पितामिष्टमूर्ति, तर्कः साक्षात् प्रियमपि जनं दीक्षते संदिहानः॥
अन्वय-श्रद्धा अन्धा तर्क:च दृशम् स्पृशति एषा अनृता धीः । श्रद्धा काञ्चिद् मृदुताम् भजति तर्क: कर्कशत्वम् च । श्रद्धा जगति कल्पिताम् इष्टमूर्तिम् साक्षात् मनुते। तर्कः साक्षात् प्रियम् जनम् अपि संदिहानः दीक्षते।
अनुवाद-श्रद्धा अन्धी है और तर्क के आंख है- यह गलत धारणा है। श्रद्धा किसी (अनिवर्चनीय) मृदुता का धारण करती है तो तर्क कर्कशता को। श्रद्धा संसार में अपने द्वारा कल्पित इष्टमूर्ति को प्रत्यक्ष स्वीकार कर लेती है, लेकिन तर्क प्रत्यक्ष उपस्थित प्रिय जन को भी संदेहपूर्वक देखता है।
व्याख्या-श्रद्धा और तर्क की तुलना स्पष्ट हो रही है। संसार में यह प्रचलित धारणा-श्रद्धा अन्धी होती है और श्रद्धालु मूर्ख-यह सर्वथा मिथ्या है। श्रद्धा में अनन्त शक्ति निहित है। उससे मनुष्य वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। जिसकी सहज प्राप्ति असंभव है। महाकवि का जीवन श्रद्धा का जीवन है । इष्ट के प्रति, गुरु के प्रति और अपने करणीय के प्रति कवि अनन्य श्रद्धा, अकाट्य विश्वास से परिपूर्ण है। अर्थान्तरन्यास अलंकार का उत्कृष्ट प्रयोग हुआ है। प्रथम पंक्ति का शेष तीन पंक्तियों से समर्थन किया गया है। दृशम् स्पृशति, मृदुताम् भजति, आदि उपचार वक्रता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। च, अपि आदि अव्ययों का प्रयोग किया गया है।
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