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________________ १०० अश्रुवीणा देर तक आलसी होकर (अपने कार्य से विरत मत होजाना)।फलवान् कार्यारम्भ होने पर क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि शिथिलता (आलस्य) करने वालों की सिद्धि निश्चित ही निष्फल हो जाती है (अर्थात् आलसी की कार्य सिद्धि नहीं होती है।) ___ व्याख्या- परिकर एवं अर्थान्तरन्यास अलंकारों का सुन्दर विनियोजन हुआ है। अन्तर्वेदी और प्रकरणपटुः साभिप्राय विशेषण हैं इसलिए परिकर अलंकार है। कार्यारम्भे. और सिद्धिः दो सुन्दर सूक्तियों का विनियोजन हुआ है। (२८) आलोकाग्रे वसतिममलामाश्रयध्वेऽपि यूयमालोकानामधिकरणभूरेष पुण्यो महर्षिः। दृश्यं कश्चिच्चटुकृतिनटः स्यान्न वा मध्यपाती, यद् दुर्भेद्यस्तिमिरनिचयो नास्ति तादृक् त्रिलोक्याम्॥ अन्वय- यूयम् आलोकाग्रे अमलाम् वसतिम् आश्रयध्वे। अपि एष पुण्यो महर्षि आलोकानाम् अधिकरणभूः।दृश्यम्कश्चित् चटुकृतिनट: नवा मध्यपाती स्यात् । यत् त्रिलोक्याम् तादृक् दुर्भेद्यः तिमिरनिचयो नास्ति। अनुवाद- तुम आँखों के अग्रभाग के पवित्र निवास-स्थान में आश्रय ग्रहण करते हो (निवास करते हो) और वह पवित्र ज्ञान की आधारभूमि है। आँसुओ देखना कहीं चाटुकार नट (मीठा बोलने वाला ठग) तुम्हारे मार्ग में न आ जाए। क्योंकि तीनों लोकों में वैसा (चाटुकार जैसा) दुर्भेद्य कोई अन्धकार समूह नहीं है। व्याख्या- कवि ने दूत के मार्ग में अधिक सावधानी अथवा अप्रमत्तता पर बल दिया है। वही व्यक्ति अपनी पात्रा में सफल हो सकता है जो हमेशा अप्रमत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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