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८६ / अश्रुवीणा
तायिन्-भ्वादिगणीय ताय-सन्तान पालनयो धातु से इन् प्रत्यय से निष्पन्न। संरक्षक, पालक।
(१७) इष्टे शश्वन् निवसति जने मन्दतामेति हर्षस्तस्यानिष्टेऽप्यनुभवलवो नैव सञ्चेतितः स्यात् । इष्टेऽनिष्टाद् व्रजति सहसा जायते तत्प्रकर्षा, लब्ध्वाऽर्हन्तं प्रतिनिधिरिवाद्याऽऽबभौ सम्मदानाम्॥
अन्वय- शश्वन् जने इष्टे निवसति तस्य हर्षः मन्दताम् एति। अनिष्टे नैव अनुभव-लवो संचेतित: स्यात् ।अनिष्टात् इष्टे सहसा व्रजति तत् प्रकर्षो जायते। अद्य अर्हन्तं लब्ध्वा सम्मदानाम् प्रतिनिधिरिव आ बभौ।
अनुवाद- मनुष्य को हमेशा इष्ट में निवास करने पर (सुखी जीवन होने पर) उसका हर्ष मन्द पड़ जाता है। अनिष्ट (दुःख) में रहने पर हर्ष का लेश मात्र अनुभव भी हृदय में नहीं होता। अनिष्ट (दुःख) से व्यक्ति जब सहसा इष्ट (सुख) में प्रवेश करता है तब उसे प्रकर्ष (अपूर्व हर्ष) उत्पन्न होता है। आज (चन्दनबाला) अर्हन्त भगवान् महावीर को प्राप्त कर मानो वह आनन्द की प्रतिनिधि बन गई है।
व्याख्या- सुख और दुःख सृष्टि का नियम है। मनुष्य कभी सुख से दुःख की तो कमी दुःख से सुख की ओर जाता है। सुख से दुःख की ओर जाना अति भयंकर होता है - सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रतां धृतः शरीरेण मृतः स जीवति ॥
मृच्छकटिक 1.10 लेकिन दुःख से सुख की प्राप्ति, प्रकर्ष की उपलब्धि एवं अत्यानन्ददायक होती है । अनिवर्चनीय सुख की प्राप्ति होती है। चन्दनबाला संसार दुःख से त्रस्त थी, प्रभु को प्राप्त कर कृत्य-कृत्य हो गयी।
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