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________________ अश्रुवीणा / ८३ तत्र त्वमेव दीपः = जहाँ पर अपना प्राण त्यागकर माता ने कामोन्मत्त दुष्ट रथिक की आँखें खोली, प्रबोध दिया वहाँ आप ही एकमात्र दीप थे, प्रकाशक थे। भक्तामर स्तोत्र में भी भगवान् के लिए दीप शब्द का प्रयोग हुआ है। इस श्लोक में काव्यलिंग, परिकर, उदात्त, रूपक आदि अलंकार हैं। प्रसाद, माधुर्य और उदात्त गुणों का लावण्य अपूर्व है। भगवान् का स्वरूप विवृणित है। (१५) चण्डश्चण्डं गलमुपनतस्त्वां दशन् कौशिकोऽपि, कोपाटोपं विपुलमुपयन् मिश्रितं विस्मयेन । संज्ञां लेभे प्रशमफलितां यन् महान् सेव्यमानः, प्रत्यासत्त्या भवति निखिलाऽभीष्टसिद्धेर्निमित्तम्॥ अन्वय-चन्डः कौशिकः त्वाम् गलम् उपनतः कोपाटोपम् विपुलम् चण्डम् दशन् विस्मयेन मिश्रितम् उपयन् प्रशमफलितां संज्ञां लेभे। यत् महान् सेव्यमानः प्रत्यसत्त्या निखिला अभीष्टसिद्धेनिमित्तम् भवति । अनुवाद-चण्डकौशिक सर्प (दृष्टि विष सर्प) आपके गले को प्राप्त कर क्रोधाविष्ट होकर विस्तृत एवं भयंकर फनों को फैलाकर डॅसते हुए विस्मय से युक्त हो गया। (उसे आश्चर्य हुआ कि दंश के बाद कोई पानी नहीं माँगता, भगवान् अडोल कैसे हैं?) (भगवान् की समत्व स्थिति को देखकर) सर्प को प्रशमफल से युक्त चेतना की प्राप्ति हुई। क्योंकि महान् व्यक्तियों की सेवा सद्यः सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्धि के लिए निमित्त कारण बन जाती है। व्याख्या- यह श्लोक महत्त्वपूर्ण है। भगवान् के साधना कालीन जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना का चित्रण है। सर्पावेष्टित भगवान् की प्रशमावस्था का बिम्ब बड़ा सुन्दर बना है। चण्डकौशिक की कथा आवश्यक चूर्णि, आवश्यक मलधारीयावृति, महावीर चरियं (नेमिचन्द्र) महावीरचरियं (गुणचन्द्र) चउप्पन्नमहापुरिसचरियं आदि ग्रंथों में उपलब्ध होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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