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________________ ओम् : १११ जानने के लिए सक्रिय होती है तब उपयोग बन जाती है। ज्ञान की दो अवस्थाएं हैं। एक अवस्था है उसका अनावृत होना और दूसरी अवस्था है ज्ञेय को जानने में सक्रिय होना। ये दोनों अवस्थाएं अन्तर्जगत् की अवस्थाएं हैं। ये बाह्य जगत् में कभी प्रकट नहीं होतीं। ये अमूर्त हैं। इनका स्वरूप हमारे सामने नहीं आता। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के ज्ञान को कभी समझ नहीं पाता, कभी पकड़ नहीं पाता। अन्तर् जगत् और बाह्य जगत् के मध्य में तीन सेतु हैं—शरीर, वाणी और मन । ये अन्तर् जगत् के प्रकार को बाह्य जगत् तक पहुंचाते हैं। अमूर्त जब मूर्त के साथ जुड़ता है, तब वह श्रुत बनता है। शास्त्र, आगम या वाङ्मय बनता है। मन, मन से आगे वाक् और वाक् से आगे काय—इन तीनों के कर्म जड़े हुए हैं। मन में कोई विचार पैदा हुआ और वह वाक में उतरा, वाङ्मय बना, वाणी में आया। उसे वाणी में आने के लिए काया के तंत्र ने उसका पूरा सहयोग किया। उच्चारण के स्थान, जिनसे शब्द उच्चरित होते हैं, सक्रिय बने और मन का भाव प्रकट हो गया। जो अगम्य था वह गम्य बन गया, जो अन्तर्जगत् में था वह बाह्यजगत् में आ गया। __मैंने मन में सोचा-मुझे वहां जाना है। किन्तु जब मैंने भाषा के द्वारा प्रकट कर दिया कि मुझे वहां जाना है, तब वह अन्तर्जगत् की घटना नहीं रही, वह बाह्य जगत् की घटना हो गई। मन की अगम्य वात दूसरों के लिए गम्य बन गई। ___शब्द की शक्ति के द्वारा हमारा ज्ञान बाह्य जगत् में अवतरित होता है। यदि शब्द का वाहन न मिले तो ज्ञान भी कभी भी बाह्य जगत् में अपने अस्तित्व को प्रकट नहीं कर पाता। यह है ज्ञान और शब्द का संबंध । शब्द पर शब्दशास्त्रियों ने काफी विमर्श किया है। दूसरी ओर मंत्रशास्त्रियों ने भी काफी विमर्श किया है। शब्द पर दो शास्त्र प्रकाश डालते हैं--शब्दशास्त्र और मंत्रशास्त्र । ज्ञान भीतर होता है। वह शब्द के माध्यम से बाहर आता है। ज्ञान भीतर पहुंचता है तब भी शब्द के माध्यम से पहुंचता है। दूसरा व्यक्ति मुझे कुछ बताता है, जिसे मैं नहीं जानता। वह बात मुझे शब्द के माध्यम से उपलब्ध हुई। शब्द ने भीतर की यात्रा शुरू की और वह मेरे ज्ञान के साथ जुड़ गया। ज्ञान का स्पर्श कर अपने अर्थ को वहां तक पहुंचा दिया। यह प्रक्रिया है ज्ञान की बाहर से भीतर तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003073
Book TitleEso Panch Namukkaoro
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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