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________________ 86 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा आदेश से नगर में गाना-बजाना, राग-रंग चल रहा है। वह पूरे नगर में घूमकर सकुशल पहुंच गया, कटोरे से एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी। चक्रवर्ती ने पूछा-नगर को देखा? क्या-क्या देखा? क्या-क्या सुना? वह बोला-केवल मौत को देख रहा था। केवल मौत की आवाज सुनी। न कुछ देखा, न कुछ सुना। आपकी शर्त को पूरा कर, आपके पास पहुंचकर ऐसा लगता है - अमर हो गया। चक्रवर्ती ने कहा-इतने बढ़िया-बढ़िया नाटक हो रहे थे, तुमने नाटक नहीं देखा? नाटक देखता या जीवन को देखता? मौत ही मौत दिख रही थी। चक्रवर्ती ने कहा-जाओ! तुम मुक्त हो। भरत किसी को मारना नहीं चाहता। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने के लिए ही मैंने इतना बड़ा उपक्रम रचा है। तुमने क्या समझा? मैं कुछ नहीं समझ सका। रहस्य का अनावरण चक्रवर्ती भरत बोले- तुम्हारे सामने एक मौत का प्रश्न था, फिर भी तुम्हारा न गाने में रस था, न नाच में रस था और न नाटक में रस था, तुम्हारा सारा रस मौत के साथ जड़ गया। यही स्थिति मेरी है। मैं इतना बड़ा चक्रवर्ती हूं, इतना बड़ा राज्य संभाल रहा हूं किन्तु मेरा रस न तो भोगों में है, न राज्य में है, न किसी और पदार्थ में है। जितना पुण्य का फल भोग रहा है, उसमें मेरा कोई रस नहीं है। मेरा रस केवल बंधन से छुटकारा पाने में है। दिन-रात मेरे मस्तिष्क में बंधन-मुक्ति का प्रश्न चक्कर लगाता रहता है इसलिए सारे जीवन-व्यवहार को चलाते हुए भी मैं उसमें लिप्त नहीं हूं। घटना से जुड़ी सचाई इस घटना से यह सचाई अभिव्यक्त होती है-पुण्य का फल भोगते समय जिस व्यक्ति का भोगों के साथ रस नहीं जुड़ता और पाप का फल भोगते समय दुःखों और कष्टों के साथ एक वेदना, तड़प, आक्रोश और भय का भाव नहीं जुड़ता, वह व्यक्ति धर्म की कला को जानता है, बन्धन से छुटकारा पाने की कला को जानता है। लौकिक धारणा है-व्यक्ति मनष्य का जीवन जीए तो उसे सख का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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