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संकलिका 16
• अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसइं।
जाण अलिंगरगहणं, जीवमणिद्दिट्ठिसंहाणं।। • जीवस्स णत्थि वण्णो, ण वि गंधो ण रसो ण वि य फासो। ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ।।
(समयसार - ४९, ५०) • आत्मा का स्वरूप : इन्द्रियों की सीमा • चेतना की दिशा बदले • तर्क शास्त्र की भाषा • इन्द्रियों के साथ चेतना न जुड़े • देखें,राग द्वेष न करें • ज्ञाता-द्रष्टाभाव का अर्थ • अंतर्मुखता का मार्ग • आकर्षण कम कैसे हो • मूर्छा केन्द्र निष्क्रिय बने • अंतर्यात्रा : आत्म दर्शन का प्रयोग
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