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________________ 117 परिष्कार करें : लड़ें नहीं विचार-भेद की समस्या दूसरी समस्या है विचार-भेद की। सबके विचार एक समान नहीं होते। जैसे रुचि-भेद सहवास की एक समस्या है वैसे ही विचार-भेद भी सहवास की एक बड़ी समस्या है। सबके सोचने का तरीका अलग अलग होता है। व्यक्ति सोचता है-जिनके साथ विचार नहीं मिलते, उनके साथ कैसे रहें? इसके समाधान के लिए प्रशिक्षण जरूरी है। हम इस सचाई को समझें--- वचार भेद और विरोध होना एक बात नहीं है। थोड़ा सा विचार - भेद होता है, व्यक्ति यह मान लेता है- अमक व्यक्ति मेरा दुश्मन है। वस्तुतः यह मानने की जरूरत नहीं है। विचार-भेद शत्रुता का नहीं किन्तु स्वतन्त्रता का लक्षण है। चिन्तन-भेद : समाज-विकास का घटक तत्व विचार की भिन्नता मनष्य की स्वतन्त्रता का सबसे बड़ा लक्षण है। अगर सब लोग एक ही तरह से सोचते तो मानव समाज बहत बौना हो जाता। विभिन्न ढंग से सोचना ही समाज-विकास का साधन है। चिन्तन का भेद समाज-विकास का मुख्य घटक रहा है। सब एक ही ढंग से सोचते तो यह नानात्व नहीं होता। जहां नानात्व नहीं होता, अनेकता नहीं होती, वहां सौन्दर्य नहीं होता। सामाजिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि में यह विचार-भेद बहुत काम करता है। सत्यं शिवं सुन्दरम् की बात बहुत कही जाती है। केवल सत्य होना ही पर्याप्त नहीं है, कल्याणकारी भी होना चाहिए। ऐसा होता है तभी सौंदर्य प्रकट होता है। जीवित समाज का लक्षण जहां एक ओर विचार-भेद से सौन्दर्य प्रस्फटित होता है वहीं दूसरी ओर विचार-भेद से लड़ाइयां भी कम नहीं होतीं। व्यक्ति अपने से भिन्न विचार रखने वाले व्यक्ति को सह नहीं पाता। इस शताब्दी में कछ ऐसे अधिनायक हुए हैं, तानाशाह हुए हैं, जिन्होंने अपने से भिन्न विचार रखने वाले व्यक्ति को कभी सहन नहीं किया। जो व्यक्ति भिन्न विचार रखता, उसका जीवन ही समाप्त कर दिया जाता। पारिवारिक और सामाजिक जीवन की मख्य समस्या है- विचार भेद को सहन न करना। वस्ततः विचार में भेद होना स्वाभाविक है। वैचारिक स्वतन्त्रता का होना बहत आवश्यक है। विचारों को रौंदना, दबाना या कचलना- यह मर्दा समाज का लक्षण है। विचार-भेद के प्रति सहिष्ण होना, जीवन्त समाज का लक्षण है, अध्यात्म चेतना का जागरण है। जब तक अध्यात्म-चेतना नहीं जागती, तब तक आदमी अपने से भिन्न विचार को सहन नहीं कर सकता। वह भिन्न विचार रखने वाले व्यक्ति को विरोधी मानकर शत्र घोषित कर देता है। जिस व्यक्ति में थोड़ी सी भी नैतिक या आध्यात्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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