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________________ सामंजस्य कैसे बढ़ाएं? निर्माण नहीं करता। यदि इस प्रकार कर्ता और अकर्ता-दोनों का सामंजस्य बिठा लें तो समस्या सुलझ जाए, आग्रह की बात समाप्त हो जाए। आत्मा : शुद्ध या अशुद्ध एक प्रश्न है-आत्मा शुद्ध है या अशुद्ध? बद्ध है या मुक्त? इस प्रश्न के संदर्भ में एक प्रकार का दष्टिकोण नहीं है। कछ मानते हैं-आत्मा शुद्ध, बुद्ध और निर्लिप्त है और कुछ मानते हैं-आत्मा शुद्ध नहीं है, बंधी हुई है। हम सामंजस्य का सूत्र खोजें। आत्मा शुद्ध, बुद्ध और निर्लिप्त है, सुख दुःख के बंधन से मुक्त है लेकिन वह तब है जब आत्मा परमात्मा बन जाए। आत्मा अपने स्वरूप की दृष्टि से शद्ध हो सकती है किन्तु अभी शद्ध नहीं है, बंधन से बंधा हुआ है। कर्म का बंधन, मोह का बंधन, मिथ्यात्व का बंधन-इन बंधनों से बंधी आत्मा शुद्ध नहीं है अण्णाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स। मिच्छत्तं अन्नाणं अविरदिभावो य णादव्वो।। एदेसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो। जं सो करेहि भावं उवओगो तस्स सो कत्ता।। गंगा का पानी निर्मल और पवित्र है किन्तु उसमें फैक्ट्रियों का गंदा कचरा मिल गया। क्या वह पानी निर्मल होगा? जब तक उस पानी को रिफाइन नहीं करेंगे तब तक वह पानी निर्मल नहीं हो पाएगा। हम यह मान लें-हमारी आत्मा स्वरूपतः शुद्ध है किन्तु वह वर्तमान में शुद्ध नहीं है। उसमें मोह और अज्ञान का गंदा पानी मिला हुआ है। अनाग्रह चेतना __ सामंजस्य का सूत्र है अनाग्रह। पकड़ न हो तो सामंजस्य संभव बन सकता है। हम इस भाषा में सोचें-निश्चय नय की दृष्टि में आत्मा निर्मल है, शुद्ध है किन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा निर्मल नहीं है। यदि आत्मा निर्मल हो तो व्यक्ति का सारा निर्णय ही दूसरा होगा। विकृत दृष्टि, विकृत चिन्तन और विकृत निर्णय पवित्र आत्मा से नहीं आता, वह अपवित्र आत्मा से ही आता है। जहां अपवित्रता या मलिनता होती है वहां निर्णय ही दूसरा होता है। जहां लोभ आता है, क्रोध आता है, वहां चेतना मलिन बन जाती है। जहां चेतना मलिन बनेगी, वहां निर्णय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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