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संकलिका
• अप्पाणमयाणंतो, अणप्पयं चावि सो अयाणंतो।
कह होदि सम्मदिट्ठि, जीवाजीवे अयाणंतो।। (समयसार २०२) • जइ जिणमयं पवज्जह, मा ववहारणिच्छयं मयह। ववहारस्स उच्छेये, तित्थुच्छेवो हवई वस्सं।। जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे वि न याणई। जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहिइ संजमं।। • अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च,
प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः। पर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां,
सानंदं नाटयंतः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबंतु।। • भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद् यावद् पराच्च्युत्वा, ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिते।।
__ (समयसार कलश - २३३, १३०) • आचार्य कुन्दकुन्द : अध्यात्म की व्याख्या • निश्चय पर बल क्यों? • अपराविद्या : पराविद्या • तीन चेतनाएं
ज्ञान चेतना, कर्म चेतना, कर्मफल चेतना। • पहला निष्कर्ष : सम्यग् दृष्टिकोण का विकास
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