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९२ ।मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य कारण क्या है ? अध्यात्म के क्षेत्र में इसका हेतु बतलाया गया
इन्द्रियाणि प्रधानानि, मानसञ्चापि चंचलम्।
कषायरंजिता भावाः, तावदाकर्षणं गृहे ॥ जब तक इन्द्रियां प्रधान बनी रहती हैं, मन चंचल है और भाव कषाय रंजित है तब तक घर के प्रति आकर्षण बना रहता है।
इन्द्रियों की प्रधानता, मन की चंचलता और कषायात्मक भाव व्यक्ति को गृहस्थ जीवन में बनाए हुए हैं। जब तक व्यक्ति पर इन्द्रियों का आधिपत्य है, तब तक वह हजारों कष्ट सह लेगा किन्तु मुनि बनने की बात नहीं सोचेगा, घर छोड़ने की बात उसके मन में पैदा नहीं होगी। चारों ओर से इन्द्रियां व्यक्ति को खींच रही हैं। उस खिंचाव से मुक्त हुए बिना आकर्षण की दिशा में बदलाव नहीं आ सकता। जब तक मन की चंचलता है तब तक घर का आकर्षण कम नहीं हो सकता । जब मन चंचल होता है, व्यक्ति अपने आकर्षण कम नहीं कर सकता। जब तक भाव कषाय से रंगे हुए हैं, घर का आकर्षण कम नहीं होता । जब व्यक्ति रंगीन चश्मा लगाता है तब उसे सब कुछ रंगीन ही रंगीन दिखाई देता है। जिस व्यक्ति का मन कषाय से रंजित है, उसे लगेगा-जो सुख है, वह घर में ही है । घर के बाहर दुःख ही दुःख
घर में रहना ही सुख है?
- पूज्य कालूगंणी का चातुर्मास उदयपुर में था। चातुर्मास के दौरान दीक्षा हो रही थी। दीक्षा ले रहा था उदयपुर का एक किशोर । सारे उदयपुर में तहलका मच गया। औरों की बात ही क्या, बाजार में सब्जी बेचने वाले कुंजड़े-कुंजड़ी कहने लगे-देखो ! बेचारा छोटा लड़का घर छोड़कर जा रहा है। इसने संसार में क्या भोगा? इसने क्या देखा संसार का सुख? इन स्वरों में उनकी पीड़ा बोल रही थी। उनको दीक्षा से क्या लेना-देना था, पर जब तक भाव कषाय से रंगे हुए हैं, तब तक व्यक्ति को लगता है-घर में रहना ही सुख है। घर के बाहर दुःख ही दुःख हैं। जब कोई साधु बनता है, घरवाले उसके सामने विशाल दुःखों प्रर्दशन करते हैं, दुःखों का अंबार-सा लगा देते हैं।
मृगापुत्र ने माता-पिता के सामने मुनि बनने का संकल्प व्यक्त किया। उसे विचलित करने के लिए माता-पिता ने मुनि-जीवन के कष्टों की गाथा गाई। यदि उसका मानस थोड़ा-सा भी कच्चा होता तो वह साधु बनने का नाम ही नहीं लेता।
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