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ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम । जीवन को चार भागों में बांट दिया गया— पचीस वर्ष तक विद्यार्थी जीवन, पचीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन, पचीस वर्ष तक वानप्रस्थ जीवन और पचीस वर्ष तक संन्यास जीवन । ब्राह्मण परम्परा की मान्यता रही - इन चार आश्रमों में सबसे बड़ा है गृहस्थ आश्रम | महाभारत में इसका बहुत समर्थन किया गया। प्रश्न प्रस्तुत हुआ— गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा कैसे ? इस प्रश्न के सन्दर्भ में कहा गया - ब्रह्मचर्य आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम - इन तीनों को धारण कौन करता है ? इनका भरण-पोषण कौन करता है ? ज्ञान और अन्न -- दोनों दृष्टियों से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर अवलम्बित हैं । ब्रह्मचर्य आश्रम के व्यक्तियों को गृहस्थ- पण्डित पढ़ाते हैं, अध्यापक पढ़ाते हैं । उनके अन्न की व्यवस्था भी गृहस्थ ही करते हैं । वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की व्यवस्था का उत्तरादायित्व भी गृहस्थ वहन करता है । मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है—
यस्मात् त्रयोप्याश्रमिणो, ज्ञानेनान्नेन चावहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ॥
ज्ञान और अन्न के द्वारा तीनों आश्रमों को गृहस्थ ही धारण करता है, इसलिए वह ज्येष्ठाश्रम है, सबसे बड़ा आश्रम है ।
चिन्ता का सम्बन्ध गृहस्थ के साथ
एक व्यक्ति दीक्षित हो रहा है, मुनि बन रहा है। किसी दूसरे व्यक्ति से कहा जाए - यह मुनि बन रहा है तुम भी मुनि बन जाओ। उस व्यक्ति का तर्क होता है - आप कहते हैं, दीक्षा लो, दीक्षा लो । यदि सब दीक्षित हो जाएंगे तो आपको भिक्षा कौन देगा, भोजन कौन देगा ? गृहस्थ के बिना साधुत्व को आधार ही नहीं मिलता। इसलिए गृहस्थ आश्रम बहुत कठिन है, घोर है । एक गृहस्थ को बहुत दायित्व निभाने होते हैं । एक साधु के क्या जिम्मेवारी है ? कहा जाता है - साधु के हाथ बगल में हैं । उसे कोई चिन्ता नहीं होती । एक गृहस्थ कहीं भी चला जाए, चिन्ता उसके साथ रहती है । वह सोचता रहता है- गांव में कैसे चल रहा है ? परिवार के लोग कैसे हैं ? पत्नी का स्वास्थ्य कैसा है ? लड़के क्या काम कर रहे हैं ? पढ़ रहे हैं या नहीं पढ़ रहे हैं ? किसी बुरी संगत या बुरी लत में तो नहीं पड़ गए हैं ? घर की सुरक्षा का प्रश्न भी उसके सामने होता है । घर में कोई चोर न घुस जाए ? कहीं नुकसान न हो जाए ? एक गृहस्थ ऐसी अनेक चिन्ताओं से सदा ग्रस्त
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