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५२ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य था। शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र था। किन्तु उनका सौन्दर्य इतना प्रभावक था कि विश्व के बड़े-बड़े व्यक्ति उनके पीछे फिरते थे। उनके साथ पांच-दस मिनट बैठकर, उनसे बातचीत कर अपने आपको धन्य मानते थे। इस विशाल सौन्दर्य का कारण क्या था? उसका एकमात्र कारण था-संयम। महात्मा गांधी ने इतना कठोर संयम साधा, संयममय जीवन व्यतीत किया कि प्रत्येक व्यक्ति उनके साथ रहने को ललचाता था और उनसे बात कर अपने आपको गौरवान्वित मानता था।
जिस व्यक्ति में प्राण की ऊर्जा होती है, संयम और त्याग का तेज होता है, वह व्यक्ति बाहर से कुछ भी न होने पर भी भीतर में अत्यन्त प्राणवान् और तेजस्वी होता है। वह जीवन्त और शक्तिशाली होता है । अब्रह्मचर्य या असंयम की सबसे बड़ी हानि यही है कि आदमी का ढांचा बाहर से वैसा का वैसा रह जाता है किन्तु भीतर से सब कुछ चुक जाता है। बहुत बार ये ढांचे, पुतलियां जो बाहर से बहुत सजीव और प्राणवान् लगती हैं, आदमी को भ्रम में डाल देती हैं। जैन पुराणों में आता है कि राजा ने अपनी पुत्री मल्लि की एक ऐसी सजीव पुतली बनाई कि देखने वाले सारे लोग उसे साक्षात् मल्लि कुमारी ही समझ लेते । वे उससे बात करने की चेष्टा करते । वह वास्तव में थी संगमरमर की बनी निर्जीव पुतली। बाहरी ढांचे आकर्षक होते हैं, पर भीतर में कुछ भी नहीं होता। ये ढांचे भ्रम पैदा करने वाले होते हैं। संयम का मूल्य : प्राण-ऊर्जा का संचय
इसी प्रकार जो शरीर हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ दिखाई देता है, पर जिसमें प्राणऊर्जा नहीं होती, वह निष्प्राण और शक्तिहीन होता है। उससे बड़ा कार्य नहीं किया जा सकता। उसकी शक्तियां चुक जाती हैं। इसलिए उसका कोई विशेष मूल्य नहीं होता। अब्रह्मचर्य का अति-सेवन करने वाला व्यक्ति अपनी प्राण-शक्ति का अतिरिक्त व्यय करता है। उससे उसकी कर्मजा-शक्ति समाप्त हो जाती है। जैसे सूजन आया हुआ शरीर भारी और स्थूल दीखता है, वैसे ही व्यक्ति बाहर से हरा-भरा दिखाई दे सकता है, पर वह होता है-शक्तिशून्य । मैं यह कहना नहीं चाहता कि मांस, हड्डियां, रक्त आदि का कोई महत्त्व नहीं है। इनका अपना महत्त्व है, मूल्य है। व्यक्ति इनकी रक्षा करता है। किन्तु हमारे शरीर में सबसे ज्यादा रक्षणीय है-प्राण-विद्युत् । उसका प्रवाह व्यर्थ न जाए। वह बाहर न जाए। खड़ेखड़े कायोत्सर्ग करते समय हाथों की अंगुलियों को शरीर से सटाकर रखें, जिससे कि अंगुलियों से निकलने वाली विद्युत् पुनः शरीर में चली जाए। यदि हाथ को
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