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ब्रह्मचर्य का शरीरशास्त्रीय अध्ययन / ३३
काम-वासना मस्तिष्क के पिछले भाग में प्रारम्भ होती है, इसलिए जैसे ही वह उभरे, वैसे ही उस स्थान में मन को एकाग्र कर कोई शुभ-संकल्प किया जाए, जिससे वह उभार शान्त हो जाए।
पेट में मल, मूत्र और वायु का दबाव बढ़ने से काम-वाहिनी नाड़ियां उत्तेजित होती हैं । खान-पान और मल-शुद्धि में सजग रहना ब्रह्मचर्य की बहुत बड़ी शर्त है। वायु विकार न बढ़े, इस ओर ध्यान देना भी बहुत आवश्यक है।
काम-जनक अवयवों के स्पर्श से भी वासना बढ़ सकती है। इन सारी बातों का ब्रह्मचर्य के परिपार्श्व में बहुत महत्त्व है, पर इन सबसे जिसका अधिक महत्त्व है, वह है वीर्य या रक्त-प्रवाह को मोड़ने की प्रक्रिया । उसकी कुछ विधियां इस प्रकार
ऊर्ध्वाकर्षण
(क) सिद्धासन मैं बैठिए । श्वास का रेचन कीजिए—बाहर निकालिए. बाह्य कुम्भक कीजिए-श्वास को बाहर रोके हुए रहिए । इस स्थिति में संकल्प कीजिए कि वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में घूम रहा है। उसका प्रवाह ऊपर की ओर हो रहा है।
संकल्प इतनी तन्मयता से कीजिए कि वैसा प्रत्यक्ष अनुभव होने लगे। जितनी देर सुविधा से कर सकें, यह संकल्प कीजिए। फिर पूरक कीजिए—श्वास को अन्दर भरिए । पूरक की स्थिति में मूलबन्ध कीजिए-गुदा को ऊपर की ओर खींचिए तथा जालन्धर-बन्ध कीजिए-टुड्डी को तानकर कण्ठकूप में लगाइए। फिर पेट को सिकोड़िए और फुलाइए । आराम से जितनी बार ऐसा कर सकें, कीजिए, फिर रेचन कीजिए। यह एक क्रिया हुई। इस अभ्यास को बढ़ाते-बढ़ाते सात या नौ बार दोहराएं।
(ख) पीठ के बल चित लेट जाइए। सिर, गर्दन और छाती को सीध में रखिए। शरीर को बिलकुल शिथिल कीजिए । मुंह को बन्द कर पूरक कीजिए। पूरक करते समय यह संकल्प कीजिए कि काम-शक्ति का प्रवाह जननेन्द्रिय से मुड़कर मस्तिष्क की ओर जा रहा है । मानसिक चक्षु से यह देखिए कि वीर्य रक्त के साथ ऊपर जा रहा है । कामवाहिनी (जननेन्द्रिय के आस-पास की) नाड़ियां हल्की हो रही हैं और मस्तिष्क की नाड़ियां भारी हो रही हैं।
पूरक के बाद अन्त:कुम्भक कीजिए-~श्वास को सुखपूर्वक अन्दर रोके रहिए। फिर धीमे-धीमे रेचन कीजिए।
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