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________________ १४४ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य एक भीत पर मिट्टी के दो गोले फेंके गए। एक गोला गीला था और एक सखा। जो गीला था, वह भींत पर चिपक गया और जो सूखा था, वह जमीन पर गिर गया। गीलेपन से लेप होता है, सूखेपन से नहीं । क्रियाएं दोनों में समान हैं, पर परिणाम में अन्तर है। जब भावशुद्धि होती है, अनासक्त भाव विकसित होता है तब लेप नहीं होता, गीलापन मिट जाता है। द्रष्टा : अद्रष्टा ___ साधु और गृहस्थ में अन्तर कहां आता है ? खाना, पीना, सोना, चलना आदि सारी क्रियाएं दोनों की समान हैं। इन क्रियाओं के आधार पर एक को ऊंचा और एक को नीचा नहीं माना जा सकता। भाव के स्तर पर ऊंचाई का बोध होता है। साधु खाता है, पर खाने का भाव दूसरा होता है गृहस्थ से। भाव को नहीं जोड़ेंगे तो ऊंचाई की बात नहीं लगेगी। भाव जोड़ने पर लगेगा कि कहां साधु और कहां गृहस्थ ? कहां बिन्दु और कहां सिन्धु । द्रष्टा और अद्रष्टा की क्रियाओं में रात-दिन का अन्तर होता है। जब अद्रष्टा द्रष्टा बनता है तब उसका चलना, बोलना, पहनना, खाना आदि सारी क्रियाएं बदल जाती हैं। वह 'अण्णहा णं पासह' का मूर्त रूप बन जाता है। जिसने आत्मा को नहीं देखा, उसके दृष्टि की भ्रान्ति मिटेगी नहीं । साधु वह होता है, जिसने आत्मा को देखा है। उसकी दृष्टि की भ्रान्ति निवृत्त हो जाती है। यह भूमिका-भेद है। इसी में भाव-विशुद्धि घटित होती है। यही है अनुभव की भूमिका । जब अनुभव जाग जाता है, तब उस व्यक्ति के लिए सारे शास्त्र कृतकृत्य हो जाते हैं। शास्त्र तब तक काम देते हैं जब तक अनुभव नहीं जागता। अनुभव जागते ही व्यक्ति आप्तपुरुष बन जाता है । यह आगम पुरुष की भूमिका है, यह अभोग की भूमिका है, अभ्रमण की भूमिका है। इस भूमिका का साधक अनुभव से तरबतर होता है और इस दिशा में निरंतर आगे बढ़ता जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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