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चिन्तन इन्द्रिय-चेतना का
आचार्य की सन्निधि में एक संगोष्ठी का आयोजन था। चर्चा थी आदि और अनादि की। आदि और अनादि-ये दोनों शब्द धर्म के क्षेत्र में बहुत प्रचलित रहे हैं। जीव की कोई आदि नहीं है, वह अनादि है। दस तत्त्व ऐसे हैं, जिनका अनादि परिणमन है । भवन, पट्ट आदि सादि हैं । जिनका आदि बिन्दु पक़ड़ा जा सकता है, वे सादि है । चर्चा के प्रसंग में शिष्य ने पूछा-भंते ! मेरी जिज्ञासा है-धर्म का आदि-पद क्या है ? धर्म का आदि-बिन्दु क्या है ?
धर्मस्यादिपदं किं स्याद् जिज्ञासा मम वर्तते । आचार्य ने उत्तर दिया
- इन्द्रियातीतविज्ञानं धर्मस्यादिपदं मतम् । धर्म का आदि बिन्दु है---इंद्रियातीत विज्ञान । जब तक इन्द्रियातीत चेतना नहीं जागती, इन्द्रियातीत ज्ञान नहीं होता, धर्म समझ में नहीं आता। जिसमें इन्द्रियातीत चेतना का विकास नहीं हैं, उसके लिए धर्म का कोई अर्थ ही नहीं है। दर्शन जगत् के दो विभाग
संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं—इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाले और अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाले । इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जो आदमी जीता है, धर्म की बात उसकी समझ में नहीं आ सकती । इन्द्रियों से परे कोई देखता है तो धर्म की बात समझ में आती है।
सारे दर्शन जगत् को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-इन्द्रिय चेतना के आधार पर चलने वाला दर्शन और इन्द्रियातीत चेतना के आधार पर चलनेवाला दर्शन । आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, कर्म-इन सबकी स्वीकृति इन्द्रियातीत चेतना की स्वीकृति है । स्वर्ग प्रत्यक्ष नहीं है, मोक्ष प्रत्यक्ष नहीं है, आत्मा और परमात्मा भी प्रत्यक्ष नहीं है, कर्म भी प्रत्यक्ष नहीं है, सब परोक्ष हैं । परोक्ष तत्त्वों को इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता।
एक दर्शन है चार्वाक, जिसे नास्तिक दर्शन कहा जाता है । वह केवल एक प्रमाण
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