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८४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
पहले वैज्ञानिक जगत में यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति में और शक्ति को द्रव्य में नहीं बदला जा सकता। दोनों स्वतन्त्र हैं। किन्तु आइन्स्टीन के बाद यह सिद्धान्त बदल गया। यह माना जाने लगा कि द्रव्य
और शक्ति-ये दोनों भिन्न नहीं किन्तु एक ही वस्तु के रूपांतरण हैं। एक पौंड कोयला लें और उसकी द्रव्य-संहति को शक्ति में बदलें तो दो अरब किलोवाट की विद्युत शक्ति प्राप्त हो सकती है।
जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त शक्ति है। वह द्रव्य चाहे जीव हो या पुद्गल । काल की अनन्त-धारा में वही द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है जिसमें अनन्त-शक्ति होती है। वह शक्ति परिणमन के द्वारा प्रकट होती रहती है। आज के वैज्ञानिक जगत में जितना प्रयोग हो रहा है, उसका क्षेत्र पौदगलिक जगत है। पौद्गलिक वस्तु को उस स्थिति में ले जाया जा सकता है, जहां उसकी स्थूलता समाप्त हो जाए, उसका द्रव्यमान या द्रव्य-संहति समाप्त हो जाए और उसे शक्ति के रूप में बदल दिया जाए।
जैन दर्शन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-इन दो नयों से विश्व की व्याख्या की है। हम विश्व को अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब हमारे सामने द्रव्य होता है। यह नीम, मकान, आदमी, पशु-ये द्रव्य ही द्रव्य हमारे सामने प्रस्तुत हैं। हम विश्व को जब भेद या विस्तार की दृष्टि से देखते हैं तब वह द्रव्य लुप्त हो जाता है। हमारे सामने होता है-पर्याय और पर्याय । परिणमन और परिणमन । आदमी कौन होता है? आदमी कोई द्रव्य नहीं है। आदमी है कहां? आप सारी दुनिया में ढूढ़े, आदमी नाम का कोई द्रव्य आपको नहीं मिलेगा। आदमी एक पर्याय है। नीम कोई द्रव्य नहीं है। वह एक पर्याय है। दुनिया में जितनी वस्तुओं को हम देख रहे हैं, वे सारी की सारी पर्यायें हैं । हम पर्याय को देख रहे हैं। द्रव्य हमारे सामने नहीं आता। वह आंखों से ओझल रहता है। इस सत्य को आचार्य हेमचन्द्र ने इन शब्दों में प्रकट किया था
अपर्ययं वस्तु समस्यमान
मद्रव्यमेतच्च विविच्यमानं। -हम अभेद के परिपार्श्व में चलें तो पर्याय लप्त हो जाएगा. बचेगा
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